Complete Chanakya Niti in Hindi | सम्पूर्ण चाणक्य नीति हिंदी में

चाणक्य जी एक योग्य शिक्षक होने के साथ साथ एक कुशल अर्थशास्त्री भी थे। इसके अतिरिक्त चाणक्य को विभिन्न विषयों की गहरी जानकारी थी। यही वजह थी कि चाणक्य के पास हर उस समस्या का हल था जिससे आज का मनुष्य नित्य दो-चार होता रहता है। चाणक्य जी एक ऐसे व्यक्ति थे जिसने अपने बल पर एक साधारण लड़के को एक राजा बना दिया। उन्होंने नंदवंश का नाश करके चन्द्रगुप्त मौर्य को राजा बनाया। तो ये कितनी इंटेलिजेंट होंगे आप सोच सकते हैं।

आचार्य चाणक्य जी ने कभी किसी बात को डिप्लोमेटिक तरीकेसे नहीं कहा, उन्होंने कभी भी किसी की चापलुची नहीं की। जो भी बात जैसे भी थी वो बात उन्होंने लोगों के सामने लाये और उसे लोगों को सीखाने की कोशिश की। हाँ कुछ लोगों को ये बातें कड़वी जरूर लगती थी, क्यूंकि सच हमेशा कड़वा ही होता है। इस पोस्ट में आचार्य चाणक्य द्वारा बताया गया सभी नीतिओं का संकलन है, उम्मीद करता हूँ आपको जीवन में यहाँ से बहुत कुछ सीख मिलेंगे। तो चलिए शुरू करते हैं –

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Chanakya Niti in Hindi – सम्पूर्ण चाणक्य नीति आसान भाषा में

अच्छा मनुष्य कौन हैं?

अधीत्येदं यथाशास्त्रं नरो जानाति सत्तमः।

धर्मोपदेशविश्यातं कार्याऽकार्याशुभाशुभम्।।

अर्थात धर्म का उपदेश देनेवाले, कार्य-अकार्य, शुभ-अशुभ को बतानेवाले चाणक्य नीतिशास्त्र को पढ़कर जो सही रूप में इसे जानता है, वही श्रेष्ठ मनुष्य है। चाणक्य जी ने अपने नीतिशास्त्र में धर्म की व्याख्या करते हुए क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए; क्या अच्छा है, क्या बुरा है इत्यादि ज्ञान का वर्णन किया गया है। चाणक्य जी के अनुसार उसके द्वारा लेखी गयी नीतिशास्त्र के अध्ययन करके इसे अपने जीवन में उतारनेवाला मनुष्य ही श्रेष्ठ मनुष्य हैं। और जो चाणक्य के द्वारा लेखी हुई नीतिशास्त्र को पढता है वे अपने जीवन बहुत उन्नति कर सकते है, इंसान जैसा जीवन जीने के लिए सहायक है।

आचार्य विष्णुगुप्त (चाणक्य) का यहां कहना है कि ज्ञानी व्यक्ति नीतिशास्त्र को पढ़कर जान लेता है कि उसके लिए करणीय क्या है और न करने योग्य क्या है। साथ ही उसे कर्म के भले-बुरे के बारे में भी ज्ञान हो जाता है। कर्तव्य के प्रति व्यक्ति द्वारा ज्ञान से अर्जित यह दृष्टि ही धर्मोपदेश का मुख्य सरोकार और प्रयोजन है। कार्य के प्रति व्यक्ति का धर्म ही व्यक्ति-धर्म (मानव-धर्म) कहलाता है अर्थात् मनुष्य अथवा किसी वस्तु का गुण और स्वभाव, जैसे अग्नि का धर्म जलाना और पानी का धर्म बुझाना है उसी प्रकार राजनीति में भी कुछ कर्म धर्मानुकूल होते हैं और बहुत कुछ धर्म के विरुद्ध होते हैं। गीता में कृष्ण ने युद्ध में अर्जुन को क्षत्रिय का धर्म इसी अर्थ में बताया था कि रणभूमि में सम्मुख शत्रु को सामने पाकर युद्ध ही क्षत्रिय का एकमात्र धर्म होता है। युद्ध से पलायन या विमुख होना कायरता कहलाती है। इसी अर्थ में आचार्य चाणक्य धर्म को ज्ञानसम्मत मानते हैं।

मृत्यु के कारणों से कैसे बचें?

दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायकः।

ससर्प गृहे वासो मृत युरेव न संशयः॥

आचार्य चाणक्य जी कहते हैं – दुष्ट पत्नी, शठ मित्र, उत्तर देनेवाला सेवक तथा सांपवाले घर में रहना, ये मृत्यु के कारण हैं। इसमें सन्देह नहीं करना चाहिए। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि ये चार चीजें किसी भी व्यक्ति के लिए जीती-जागती मृत्यु के समान हैं – दुश्चरित्र पत्नी, दुष्ट मित्र, जवाब देनेवाला अर्थात् मुँह लगा नौकर-इन सबका त्याग कर देना चाहिए। घर में रहनेवाले सांप को कैसे भी, मार देना चाहिए। ऐसा न करने पर व्यक्ति के जीवन को हर समय खतरा बना रहता है। क्योंकि किसी भी सद्गृहस्थ के लिए उसकी पत्नी का दुष्ट होना मृत्यु के समान है। वह व्यक्ति आत्महत्या करने पर विवश हो सकता है। वह स्त्री सदैव व्यक्ति के लिए दुःख का कारण बनी रहती है। और इससे जो दुःख होता हैं, ये हर वक़्त आपके पास ही रहता है।

इसी प्रकार नीच व्यक्ति, धूर्त अगर मित्र के रूप में आपके पास आकर बैठता है तो वह आपके लिए अहितकारी ही होगा। सेवक या नौकर भी घर के गुप्तभेद जानता है, वह भी यदि स्वामी की आज्ञा का पालन करनेवाला नहीं है तो मुसीबत का कारण हो सकता है। उससे भी हर समय सावधानी बरतनी पड़ती है, तो दुष्ट स्त्री, छली मित्र व मुंहलगा नौकर कभी भी समय पड़ने पर धोखा दे सकते हैं। अत: ऐसे में पत्नी को आज्ञाकारिणी व पतिव्रता होना, मित्र को समझदार व विश्वसनीय होना और नौकर को स्वामी के प्रति श्रद्धावान होना चाहिए। इसके  विपरीत होने पर कष्ट ही कष्ट है। इनसे व्यक्ति को बचना ही चाहिए वरना ऐसा व्यक्ति कभी भी मृत्यु का ग्रास हो सकता है। ऐसी दुःख, कष्ट अगर इंसान के जीवन में होता है तो उसके लिए यह दुनिया ही नर्क बन जाता है।

स्त्री पुरुष से कैसे आगे होती है?

स्त्रीणां द्विगुण अहारो लज्जा चापि चतुर्गुणा।

साहसं षड्गुणं चैव कामश्चाष्टगुणः स्मृतः॥

आचार्य चाणक्य जी यहां पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की क्रियावृत्ति की तुलना करते हुए कहते हैं कि स्त्रियों में आहार दुगुना, लज्जा चौगुनी, साहस छ: गुना तथा कामोत्तेजना आठ गुनी होती है।

यहां वस्तुतः नारी के बारे में जो कहा गया है, उसकी निन्दा नहीं बल्कि गुण की दृष्टि से प्रशंसा है कि स्त्रियों का आहार पुरुष से दुगुना होता है। लज्जा चौगुनी होती है, किसी भी बुरे काम को करने की हिम्मत स्त्री में पुरुष से छ: गुना अधिक होती है तथा कामोत्तेजना-सम्भोग की इच्छा पुरुष से स्त्री में आठ गुना अधिक होती है। और यह गुणवत्ता उनके शारीरिक दायित्व-जिसका वे विवाहोपरान्त वहन करती हैं, के कारण होती है।

स्त्रियों को गर्भधारण करना होता है सन्तानोत्पत्ति के बाद उसका पालन-पोषण करना पड़ता है या पूरी प्रक्रिया में उन्हें कितना कष्ट उठाना पड़ता है इसकी कल्पना स्त्री के अलावा दूसरा अन्य कोई कैसे कर सकता है। बांझ क्या जाने प्रसव पीड़ा’ प्रसव पीड़ा झेलना या होने के गौरव के सामने एक सामान्य प्रक्रिया होकर रह जाती है।

जहां तक काम-भावना का प्रश्न है पुरुषों की अपेक्षा काम-भावना स्त्रियों में अधिक होती है क्योंकि मैथुन के बाद वीर्यस्खलन के साथ काम शांति और काम वैराग्य भी उत्पन्न होता है। स्त्रियों में भी काम शांति होती है साथ ही अतृप्तावस्था में स्वाभाविक क्रिया न होने पर अन्य पुरुष से सम्बन्ध कायम करने की प्रबल भावना उसमें वेश्यापन (परपुरुषगामी) ला देती है। लेकिन पुरुष में तत्काल ऐसी क्रियाएं नहीं देखी जातीं। अतः काम-भावना का पुरुष की अपेक्षा स्त्रियों में अधिक होना अनुमानित किया गया है।

अच्छी शिक्षा किसके लिए हैं?

मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टास्त्रीभरणेन च।

दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति॥

मूर्ख शिष्य को पढ़ाने से, उपदेश देने से, दुष्ट स्त्री का भरण-पोषण करने से तथा दु:खी लोगों का साथ करने से विद्वान् व्यक्ति भी दु:खी होता है यानी कह सकते हैं कि चाहे कोई भी कितना ही समझदार क्यों न हो किन्तु मूर्ख शिष्य को पढ़ाने पर, दुष्ट स्त्री के साथ जीवन बिताने पर तथा दुःखियों-रोगियों के बीच में रहने पर विद्वान् व्यक्ति भी दु:खी हो ही जाता है। साधारण आदमी की तो बात ही क्या। अतः नीति यही कहती है कि मूर्ख शिष्य को शिक्षा नहीं देनी चाहिए। दुष्ट स्त्री से सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए बल्कि उससे दूर ही रहना चाहिए और दुःखी व्यक्तियों के बीच में नहीं रहना चाहिए।

हो सकता है, ये बातें किसी भी व्यक्ति को साधारण या सामान्य लग सकती हैं लेकिन यदि इन पर गंभीरता से विचार किया जाए तो यह स्पष्ट है कि शिक्षा या सीख उसी व्यक्ति को देनी चाहिए जो उसका सुपात्र हो या जिसके मन में इन शिक्षाप्रद बातों को ग्रहण करने की इच्छा हो।

आप जानते हैं कि एक बार वर्षा से भीगते बन्दर को बया (चिड़िया) ने घोंसला बनाने की शिक्षा दी लेकिन बन्दर उसकी इस सीख के योग्य नहीं था। झुंझलाए हुए बन्दर ने बया का ही घोंसला उजाड़ डाला। इसीलिए कहा गया है कि जिस व्यक्ति को किसी बात का ज्ञान न हो उसे कोई भी बात आसानी से समझाई जा सकती है पर जो अधूरा ज्ञानी है उसे तो ब्रह्मा भी नहीं समझा सकता।

इसी संदर्भ में चाणक्य ने आगे कहा है कि मूर्ख के समान ही दुष्ट स्त्री का संग करना या उसका पालन-पोषण करना भी व्यक्ति के लिए दु:ख का कारण बन सकता है। क्योंकि जो स्त्री अपने पति के प्रति आस्थावान न हो सकी वह किसी दूसरे के लिए क्या विश्वसनीय हो सकती है? नहीं। इसी तरह दु:खी व्यक्ति जो आत्मबल से हीन हो चुका है, निराशा में डूब चुका है उसे कौन उबार सकता है। इसलिए बुद्धिमान को चाहिए कि वह मूर्ख, दुष्ट स्त्री या दुःखी व्यक्ति (तीनों से) बचकर आचरण करे।

पंचतंत्र में भी कहा गया है –

‘माता यस्य गृहे नास्ति भार्या चाप्रियवादिनी।

अरण्यं तेन गन्तव्यं यथारण्यं तथा गृहम् ॥’-पञ्च0 4 | 53

अर्थात् जिसके घर में माता न हो और स्त्री व्यभिचारिणी हो, उसे वन में चले जाना चाहिए, क्योंकि उसके लिए घर और वन दोनों समान ही हैं। दुःखी का पालन भी सन्तापकारक ही होता है। वैद्य ‘परदुःखेन तप्यते’ दूसरे के दुःख से दुःखी होता है। अंतः दुःखियों के साथ व्यवहार करने से पण्डित भी दुःखी होगा।

विपत्ति में क्या करें?

आपदर्थे धनं रक्षेद् दारान् रक्षेद् धनैरपि।
आत्मानं सततं रक्षेद् दारैरपि धनैरपि।।

विपत्ति के समय के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए। धन से अधिक रक्षा पत्नी की करनी चाहिए। किन्तु अपनी रक्षा का प्रश्न सम्मुख आने पर धन और पत्नी का बलिदान भी करना पड़े तो भी नहीं चूकना चाहिए।

संकट, दुःख में धन ही मनुष्य के काम आता है। अतः ऐसे संकट के समय में संचित धन ही काम आता है इसलिए मनुष्य को धन की रक्षा करनी चाहिए। पत्नी धन से भी बढ़कर है, अतः उसकी रक्षा धन से भी पहले करनी चाहिए। किन्तु धन एवं पत्नी से पहले तथा इन दोनों से बढ़कर अपनी रक्षा करनी चाहिए। अपनी रक्षा होने पर इनकी तथा अन्य सबकी भी रक्षा की जा सकती है।

आचार्य चाणक्य धन के महत्त्व को कम नहीं करते क्योंकि धन से व्यक्ति के अनेक कार्य सधते हैं किन्तु परिवार की भद्र महिला, स्त्री अथवा पत्नी के जीवन-सम्मान का प्रश्न सम्मुख आ जाने पर धन की परवाह नहीं करनी चाहिए। परिवार की मान-मर्यादा से ही व्यक्ति की अपनी मान-मर्यादा है। वही चली गई तो जीवन किस काम का और वह धन किस काम का?

पर जब व्यक्ति की स्वयं की जान पर बन आवे तो क्या धन, क्या स्त्री, सभी की चिन्ता छोड़ व्यक्ति को अपने जीवन की रक्षा करनी चाहिए। वह रहेगा तो ही पत्नी अथवा धन का उपभोग कर सकेगा वरना सब व्यर्थ ही रह जाएगा। राजपूत स्त्रियों ने जब यह अनुभव किया कि राज्य की रक्षा कर पाना या उसे बचा पाना असंभव हो गया तो उन्होंने जौहर व्रत का पालन किया और अपने प्राणों की आहुति दे दी। यही जीवन का धर्म है।

आपदर्थे धनं रक्षेच्छ्रीमतांकुतः किमापदः।

कदाचिच्चलिता लक्ष्मी संचिताऽपि विनश्यति॥

आपत्ति काल के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए लेकिन धनवान को आपत्ति क्या करेगी अर्थात् धनवान पर आपत्ति आती ही कहां है ? तो प्रश्न उठा कि लक्ष्मी तो चंचल होती है, पता नहीं कब नष्ट हो जाए तो फिर यदि ऐसा है तो कदाचित् संचित धन भी नष्ट हो सकता है।

बुरा समय आने पर व्यक्ति का सब कुछ नष्ट हो सकता है। लक्ष्मी स्वभाव से ही चंचल होती है। इसका कोई भरोसा नहीं कि कब साथ छोड़ जाये। इसलिए धनवान व्यक्ति को भी यह नहीं समझना चाहिए कि उस पर विपत्ति आएगी ही नहीं। दु:ख के समय के लिए कुछ धन अवश्य बचाकर रखना चाहिए।

वस्तुतः यह श्लोक ‘भोज-प्रबन्ध’ में भी उद्धृत है। वहां राजा भोज और कोषाध्यक्ष की बातचीत का प्रसंग है। राजा भोज अत्यधिक दानी थे। उनकी इतनी दानशीलता को देखकर खजांची एक चरण लिख देता है तो राजा दूसरे चरण में उसका उत्तर दे देते हैं अन्त में खजांची राजा के मन्तव्य और दान के समझकर अपनी भूल स्वीकार कर लेता है।

यहाँ अभिप्राय यह है कि धन का प्रयोग अनुचित कार्यों में किया जाय तो उसके नष्ट होने पर व्यक्ति विपन्नता को प्राप्त होता है, किन्तु सत्कार्यों में व्यय किया गया धन व्यक्ति को मान, प्रतिष्ठा और समाज में आदर का पात्र बनाता है क्योंकि धन-सम्पत्ति अस्थायी होती है इन पर क्या गुमान करना। व्यक्ति इन्हें अर्जित करता है। वास्तविक शक्ति तो प्रभु द्वारा प्रदत्त है वही स्थायी है। जबतक उसकी कृपा है तब तक ही सब कुछ है लेकिन यह निश्चय है कि धन सम्पत्ति व्यक्ति के परिश्रम, बुद्धिमत्ता और कार्यक्षमता से प्राप्त होती है और इसके चलते वह कभी नष्ट नहीं होती। श्रम, बुद्धि और कार्यक्षमता के अभाव में वह हमेशा साथ छोड़ देती है, तो मूल बात श्रम, बुद्धि की कार्य क्षमता का बने रहना है तभी लक्ष्मी भी स्थिर रह सकती है।

हाथ आई चीज न गंवाएँ

यो ध्रुवाणि परित्यज्य ह्यध्रुवं परिसेवते।

ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति चाध्रुवं नष्टमेव तत् ||

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जो निश्चित को छोड़कर अनिश्चित का सहारा लेता है, उसका निश्चित भी नष्ट हो जाता है। अनिश्चित तो स्वयं नष्ट होता ही है। अभिप्राय यह है कि जिस चीज का मिलना पक्का निश्चित है, उसी को पहले प्राप्त करना चाहिए या उसी काम को पहले कर लेना चाहिए। ऐसा न करके जो व्यक्ति अनिश्चित यानि जिसका होना या मिलना पक्का न हो, उसकी ओर पहले दौड़ता है, उसका निश्चित भी नष्ट हो जाता है अर्थात् मिलनेवाली वस्तु भी नहीं मिलती। अनिश्चित का तो विश्वास करना ही मूर्खता है, इसे तो नष्ट ही समझना चाहिए। अर्थात् ऐसा आदमी अक्सर ‘आधी तज पूरी को धावे, आधी मिले न पूरी पावे’ की स्थिति का शिकार हो जाता है।

इस संदर्भ में अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। कुछ व्यक्ति केवल मनोरथ से ही कर्म की प्राप्ति मान लेते हैं, वह जो कुछ पाने योग्य हाथ में है, उसकी परवाह किए बगैर जो हाथ में नहीं है उसके चक्कर में पड़ जाते हैं और होता यह है कि जो पा सकते थे, उसे भी गंवा बैठते हैं। ऐसे व्यक्ति केवल डींगें मारते हैं, कर्म में शिथिलता बरतते हैं और शेखचिल्ली होकर रह जाते हैं।

इसलिए व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने साधनों के अनुरूप कार्य- योजना बनाकर चले तभी वह इस जीवन-रूपी सागर को शरीर-रूपी नौका के सहारे पार जा सकता है वरना नाव मझधार में कहीं भी मनोरथ के भंवर में फंसकर रह जाएगी। अतः मनुष्य को अपनी क्षमता को पहचानकर कार्य करना चाहिए क्योंकि काम करने से ही होता है, केवल मनोरथ से नहीं।

परख समय पर होती है

जानीयात्प्रेषणेभृत्यान् बान्धवान्व्यसनाऽऽगमे।

मित्रं याऽऽपत्तिकालेषु भार्यां च विभवक्षये||

आचार्य चाणक्य समय आने पर संबंधियों की परीक्षा के संदर्भ में कहते हैं – किसी महत्त्वपूर्ण कार्य पर भेजते समय सेवक की पहचान होती है। दु:ख के समय में बन्धु-बान्धवों की, विपत्ति के समय मित्र की तथा धन नष्ट हो जाने पर पत्नी की परीक्षा होती है।

यदि किसी विशेष अवसर पर सेवक को कहीं किसी विशेष कार्य से भेजा जाए तभी, उसकी ईमानदारी आदि की परीक्षा होती है। रोग या विपत्ति में ही सगे-सम्बन्धियों तथा मित्रों की पहचान होती है और गरीबी में, धनाभाव में पत्नी की परीक्षा होती है।

सभी जानते हैं कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह अकेला नहीं रह सकता। उसे अपने हर काम को करने में सहायक, मित्र, बन्धु, सखा और परिजनों की आवश्यकता होती है किन्तु किसी भी कारणवश उसके ये सहायक उसकी जीवन-यात्रा में समय पर सहायक नहीं होते तो उस व्यक्ति का जीवन निष्फल हो जाता है। अतः सही सेवक वही जो असमय आने पर सहायक होवे। मित्र, सखा व बन्धु वही भला जो आपत्ति के समय सहायक हो, व्यसनों से मुक्ति दिलानेवाला हो और पत्नी वही सहायिका और असली जीवन-संगिनी है जो धनाभाव में भी पति का सदैव साथ दे। ऐसा न होने पर इनका होना बेकार है।

आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रुसंकटे।

राजद्वारे श्मशाने च यात्तिष्ठति स बान्धवः।।

यहां आचार्य चाणक्य बन्धु-बान्धवों, मित्रों और परिवारजनों की पहचान बताते कहते हैं कि रोग की दशा में-जब कोई बीमार होने पर, असमय शत्रु से घिर जाने राजकार्य में सहायक रूप में तथा मृत्यु पर श्मशान भूमि में ले जानेवाला व्यक्ति सच्चा मित्र और बन्धु है। देखा जाए तो सामाजिक प्राणी होने के कारण मनुष्य के सम्पर्क में अनेक लोग आ जाते हैं और अपने लाभ के कारण वह व्यक्ति में जुड़े होने का भाव भी जताते हैं किन्तु वे कितने सच्चे और सही मित्र हैं और कितने मौकापरस्त, इसका अनुभव तो समय आने पर ही हो पाता है।

ऊपर वर्णित स्थितियां ऐसे ही अवसर का उदाहरण हैं। जब कोई व्यक्ति रोगग्रस्त हो जाता है तो उसे सहायक की आवश्यकता पड़ती है ऐसे में परिवारजन और मित्र, बन्धु जो सहायक बनते हैं वास्तव में वही सही मित्र कहे जाते हैं। शेष सब तो मुंहदेखी की बातें हैं। इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति शत्रु से घिर जाए, उसके प्राण संकट में पड़ जाएं तो जो कोई मित्र, सगा-सम्बन्धी शत्रुओं से मुक्ति दिलाता है, प्राण-रक्षा में सहायक बनता है वह उसका मित्र व हितैषी है। शेष सब स्वार्थ के नाते ही जुड़े हैं।

ऐसे ही राजा और सरकार की ओर से व्यक्ति पर न्यायिक मामले में अभियोग लग जाता है या किसी राजकीय कर्म में उसके समक्ष बड़ी समस्या आ जाती है तो मित्र-बन्धु (यदि वे सच्चे हैं तो) ही सहयोग करते हैं और मृत्यूपरान्त तो हम सभी जानते हैं कि व्यक्ति चार व्यक्तियों के कन्धों पर सवार होकर ही श्मशान पहुंचता है। ऐसे में मित्र-सम्बन्धियों की ही अपेक्षा होती है। ऐसे समय में ही सच्चे और सही ईमानदार मित्र की वास्तविक पहचान होती है।

इन स्थानों पर कभी न रहें

यस्मिन् देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवाः।

न च विद्यागमोऽप्यस्ति वासस्तत्र न कारयेत्॥

जिस देश में सम्मान न हो, जहां कोई आजीविका न मिले, जहां अपना कोई भाई-बन्धु न रहता हो और जहां विद्या-अध्ययन सम्भव न हो, ऐसे स्थान पर नहीं रहना चाहिए। अर्थात् जिस देश अथवा शहर में निम्नलिखित सुविधाएं न हों, उस स्थान को अपना निवास नहीं बनाना चाहिए –

  • जहां किसी भी व्यक्ति का सम्मान न हो।
  • जहां व्यक्ति को कोई काम न मिल सके।
  • जहां अपना कोई सगा-सम्बन्धी या परिचित व्यक्ति न रहता हो।
  • जहां विद्या प्राप्त करने के साधन न हों, अर्थात् जहां स्कूल-कॉलेज या पुस्तकालय आदि न हों।
  • ऐसे स्थानों पर रहने से कोई लाभ नहीं होता।

अतः इन स्थानों को छोड़ देना ही उचित होता है।

अतः मुनष्य को चाहिए कि वह आजीविका के लिए उपयुक्त स्थान चुने। वहां का समाज ही उसका सही समाज होगा क्योंकि मनुष्य सांसारिक प्राणी है, वह केवल आजीविका के भरोसे जीवित नहीं रह सकता। जहां उसके मित्र-बन्धु हों वहां आजीविका भी हो तो यह उपयुक्त स्थान होगा। विचार-शक्ति को बनाये रखने के लिए, ज्ञान-प्राप्ति के साधन भी वहां सुलभ हों, इसके बिना भी मनुष्य का निर्वाह नहीं। इसीलिए आचार्य चाणक्य यहां नीति वचन के रूप में कहते हैं कि व्यक्ति को ऐसे देश में निवास नहीं करना चाहिए जहां उसे न सम्मान प्राप्त हो, न आजीविका का साधन हो, न बंधु-बान्धव हों, न ही विद्या-प्राप्ति का कोई साधन हो बल्कि जहां ये संसाधन उपलब्ध हों वहां वास करना चाहिए।

धनिकः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यस्तु पञ्चमः।

पञ्च यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसे वसेत॥

जहां कोई सेठ, वेदपाठी विद्वान्, राजा और वैद्य न हो, जहां कोई नदी न हो, इन पांच स्थानों पर एक दिन भी नहीं रहना चाहिए।

अर्थात् इन स्थानों पर एक दिन भी नहीं रहना चाहिए –

  • जिस शहर में कोई भी धनवान व्यक्ति न हो।
  • जिस देश में वेदों को जाननेवाले विद्वान् न हों।
  • जिस देश में कोई राजा या सरकार न हो।
  • जिस शहर या गांव में कोई वैद्य (डॉक्टर) न हो।
  • जिस स्थान के पास कोई भी नदी न बहती हो।

क्योंकि आचार्य चाणक्य मानते हैं कि जीवन की समस्याओं में इन पांच वस्तुओं का अत्यधिक महत्त्व है। आपत्ति के समय धन की आवश्यकता होती है जिसकी पूर्ति धनी व्यक्तियों से ही हो पाती है। कर्मकाण्ड के लिए पारंगत पुरोहितों की आवश्यकता होती है। राज्य-शासन के लिए राज-प्रमुख या राजा की आवश्यकता होती है। जल आपूर्ति के लिए नदी और रोग निरवारण के लिए अच्छे चिकित्सक की आवश्यकता होती है। इसीलिए आचार्य चाणक्य पूर्वोक्त पांचों सुविधाएं जीवन के लिए अपेक्षित सुविधा के रूप में मानते हुए इनकी आवश्यकता पर बल देते हैं और इन सुविधाओं से सम्पन्न स्थान को ही रहने योग्य स्थान के रूप में समझते हैं।

लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिण्यं त्यागशीलता।

पञ्च यत्र न विद्यन्ते न कुर्यात्तत्र संगतिम्॥

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जिस स्थान पर आजीविका न मिले, लोगों में भय, लज्जा, उदारता तथा दान देने की प्रवृत्ति न हो, ऐसी पांच जगहों को भी मनुष्य को अपने निवास के लिए नहीं चुनना चाहिए। इन पांच चीजों को विस्तार से बताते हुए वे कहते हैं कि जहां निम्नलिखित पांच चीजें न हों, उस स्थान से कोई सरोकार नहीं रखना चाहिए।

  • जहां रोजी-रोटी का कोई साधन अथवा आजीविका या व्यापार की स्थिति न हो।
  • जहां लोगों में लोकलाज अथवा किसी प्रकार का भय न हो।
  • जिस स्थान पर परोपकारी लोग न हों और जिनमें त्याग की भावना न पाई जाती हो।
  • जहां लोगों को समाज या कानून का कोई भय न हो।
  • जहां के लोग दान देना जानते ही न हों।

ऐसे स्थान पर व्यक्ति का कोई सम्मान नहीं होता और वहां रहना भी कठिन ही होता है। अत: व्यक्ति को अपने आवास के लिए सब प्रकार से साधन सम्पन्न और व्यावहारिक स्थान चुनना चाहिए ताकि वह एक स्वस्थ वातावरण में अपने परिवार के साथ सुरक्षित एवं सुखपूर्वक रह सके। क्योंकि जहां के लोगों में ईश्वर, लोक व परलोक में आस्था होगी वहीं सामाजिक आदर का भाव होगा, अकरणीय कार्य करने में भय, संकोच व लज्जा का भाव रहेगा। लोगों में परस्पर त्यागभावना होगी और वे व्यक्ति स्वार्थ में लीन कानून तोड़ने में प्रवृत्त नहीं होंगे, बल्कि दूसरों के हितार्थ दानशील होंगे।

विवाह समान में ही शोभा देता है

वरयेत्कुलजां प्राज्ञो निरूपामपि कन्यकाम्।

रूपवतीं न नीचस्य विवाहः सदृशे कुले ||

आचार्य चाणक्य विवाह के सन्दर्भ में रूप और कुल में श्रेष्ठता कुल को देते हुए कहते हैं कि बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह रूपवती न होने पर भी कुलीन कन्या से विवाह कर ले, किन्तु नीच कुल की कन्या यदि रूपवती तथा सुशील भी हो, तो उससे विवाह न करे क्योंकि विवाह समान कुल में ही करना चाहिए। (विवाह के लिए वर और वधू, दोनों का घराना समान स्तर का होना चाहिए। बुद्धिमान मनुष्य को अपने समान कुल की कन्या से ही विवाह करना चाहिए। चाहे कन्या साधारण रूप-रंग की ही क्यों न हो, निम्न कुल की कन्या यदि सुन्दर और सुशील भी हो, तो उससे विवाह नहीं करना चाहिए।)

गरुड़ पुराण में भी यह श्लोक किंचित् पाठभेद से मिलता है। उसमें भी कहा गया है कि ‘समान कुलव्यसने च सख्यम्’ अर्थात् मित्रता एवं विवाह समान में ही शोभा देता है। विजातीय अथवा असमान (बेमेल विवाह) में अनेक कष्ट आते हैं। अनेक समस्याएं पैदा हो जाती हैं। यद्यपि मनुस्मृति में प्रतिकूल विवाह का भी विधान है लेकिन देखने में यही आता है कि असमान विवाह अनेक कारणों से असफल ही हो जाते हैं या उनका परिणाम सुखद नहीं रह पाता। इसलिए जीवन के सन्दर्भ में विवाह जैसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न को भावुकता का शिकार बनने से रोकना ही नीतिसंगत है।

भरोसा किस पर करें और किस पर नहीं

नखीनां च नदीनां च श्रृंगीणां शस्त्रपाणिनाम् ।

विश्वासो नैव कर्तव्यः स्त्रीषु राजकुलेषु च ||

आचार्य चाणक्य यहां विश्वसनीयता के लक्षणों की चर्चा करते हुए कहते हैं कि लम्बे नाखूनवाले हिंसक पशुओं, नदियों, बड़े-बड़े सींगवाले पशुओं, शस्त्रधारियों, स्त्रियों और राज-परिवारों का कभी विश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि ये कब घात कर दें, चोट पहुंचा दें कोई भरोसा नहीं। जैसे लम्बे नाखूनवाले सिंह, भालू अथवा बाघ आदि पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता, क्योंकि उनके सम्बन्ध में आप इस बात के लिए आश्वस्त नहीं हो सकते कि वे आप पर आक्रमण नहीं करेंगे। हिंसक पशु तो स्वभाव से ही आक्रामक प्रवृत्ति के होते हैं, इसलिए उन पर विश्वास करनेवाला व्यक्ति सदा धोखा खाता है। ऐसे ही यदि आप कोई नदी पार करना चाहते हैं तो आपको किसी व्यक्ति के यह कहने पर भरोसा नहीं करना चाहिए कि नदी का प्रवाह अथवा गहराई कितनी है, क्योंकि नदी के प्रवाह और उसकी गहराई के सम्बन्ध में कोई निश्चित धारणा कभी नहीं बताई जा सकती। इसलिए आप यदि नदी में उतरते हैं तो आपका सावधान रहना आवश्यक है और स्वयं के विवेक का प्रयोग करना चाहिए।

इसी प्रकार आचार्य चाणक्य का कहना है कि सींगवाले पशुओं तथा शस्त्रधारी व्यक्ति का भी विश्वास नहीं किया जा सकता। क्योंकि न जाने वे कब स्वार्थवश आपका अहित कर बैठे या अपने जुनून में आक्रमण कर दें। इसी प्रकार स्त्रियों का भी आंख मींचकर विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि क्या पता उनके मन में क्या है और वे अपने संकीर्ण सोच, प्रति ईर्ष्या-द्वेष से ग्रस्त आपको कब गलत सलाह दे बैठे या आपको गलत, अपने मनोनुकूल कार्य के लिए प्रेरित कर दें। आचार्य चाणक्य का स्पष्ट मत है कि बहुत-सी स्त्रियां कहती कुछ हैं और करती कुछ और हैं। वे प्रेम किसी अन्य से करती हैं तथा प्रेम का प्रदर्शन किसी अन्य से करती हैं। इसीलिए उनकी स्वामिभक्ति व पतिव्रता होने पर विश्वास नहीं किया जा सकता। इसमें सावधानी बरतनी चाहिए।

इसी प्रकार आचार्य चाणक्य राजकुल की भी चर्चा करते हैं। उनके विचार से राजनीति सदा ही परिवर्तनशील होती है। राजपरिवार के लोग सत्ता-पक्ष से जुड़े होने के कारण या सत्ता में आने (सत्ता पाने) के लोभ में कूट चालों में ग्रस्त रहते हैं, उसी के शिकार भी होते हैं उनके मित्र व शत्रु सामयिक हानि-लाभ पर निर्भर करते हैं। इस पक्ष से ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में देखें तो यह तथ्य स्पष्ट है कि राज्य-प्राप्ति के लिए पुत्र पिता की हत्या करवा देता है। उसे कारागार में डलवा देता है। कंस ने लोभ में पिता उग्रसेन को कारागार में डाल दिया था और अपने प्राणों को सुरक्षित रखने के भाव से बहन देवकी को पति वासुदेव सहित जेल में डाल दिया था। कृष्ण का जन्म कंस की कारावास में ही हुआ था। अतः चाणक्य के अनुसार इन 6 सम्बन्धों-शक्तियों पर अन्धविश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि इनकी चित्तवृत्तियाँ क्षण-प्रतिक्षण बदलती रहती हैं। यही नीति कहती है।

सार को ग्रहण करें

विषादप्यमृतं ग्राह्यममेध्यादपि कांचनम्।

नीचादप्युत्तमा विद्यां स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि॥

आचार्य चाणक्य यहां साध्य की महत्ता दर्शाते हुए साधन को गौण मानते हुए कहते हैं कि विष में से भी अमृत तथा गन्दगी में से भी सोना ले लेना चाहिए। नीच व्यक्ति से भी उत्तम विद्या ले लेनी चाहिए और दुष्ट कुल से भी स्त्री-रत्न को ले लेना चाहिए।

अमृत अमृत है, जीवनदायी है अतः विष में पड़े हुए अमृत को ले लेना ही उचित होता है। सोना यदि कहीं पर गन्दगी में भी पड़ा हो तो उसे उठा लेना चाहिए। अच्छा ज्ञान या विद्या किसी नीच कुलवाले व्यक्ति से भी मिले तो उसे खुशी से ग्रहण कर लेना चाहिए। इसी तरह यदि दुष्टों के कुल में भी कोई गुणवान, सुशील श्रेष्ठ कन्या हो, तो उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को अमृत, स्वर्ण, विद्या तथा गुण और स्त्री-रत्न को ग्रहण करने से कभी भी हिचकिचाना नहीं चाहिए। वह इनके ग्रहण में गुण को महत्ता दे, स्रोत को नहीं अर्थात् बुरे स्रोत से कोई उत्तम पदार्थ प्राप्त होता हो तो उसे प्राप्त करने में व्यक्ति को संकोच नहीं करना चाहिए क्योंकि उपलक्ष्य तो साध्य है साधन नहीं।

चाणक्य ने एक स्थान पर यह भी कहा है कि नीच कुल की सुन्दर कन्या से विवाह आदि नहीं करना चाहिए, परन्तु यहां उनका संकेत इस ओर है कि भले ही कन्या छोटे कुल में उत्पन्न हुई हो, पर वह गुणवती हो तो उसे ग्रहण करने में चाणक्य आपत्ति नहीं समझते। यहां उन्होंने उसके गुणों की ओर संकेत किया है केवल मात्र रसिक की भांति उसके रूप की ओर नहीं । विवाह के सम्बन्ध में तो चाणक्य की यह स्पष्ट धारणा है कि वह तो समान स्तर के परिवार में ही होना चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि चाणक्य विवाह के बाद होनेवाले परिणामों से पूर्णतया परिचित थे। जैसा कि आज हम देखते हैं कि समान स्तर और समान विचारवाले परिवारों में विवाह न होने के कारण व्यक्ति को अनेक संकटों से गुजरना पड़ता है किन्तु इसके बाद भी गुण का महत्त्व सर्वोपरि है उसे परखने में भूल नहीं करनी चाहिए।

जीवन में सुख किसको मिलते हैं?

भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिर वरांगना।

विभवो दानशक्तिश्च नाऽल्पस्य तपसः फलम्॥

यहां आचार्य चाणक्य का कथन है कि भोज्य पदार्थ, भोजन-शक्ति, रतिशक्ति, सुन्दर स्त्री, वैभव तथा दान-शक्ति, ये सब सुख किसी अल्प तपस्या का फल नहीं होते। अर्थात् सुन्दर खाने-पीने की वस्तुएं मिलें और जीवन के अन्त तक खाने-पचाने की शक्ति बनी रहे। स्त्री से संभोग की इच्छा बनी रहे तथा सुन्दर स्त्री मिले, धन-सम्पत्ति हो और दान देने की आदत भी हो। ये सारे सुख किसी भाग्यशाली को ही मिलते हैं, पूर्व जन्म में अखण्ड तपस्या से ही ऐसा सौभाग्य मिलता है।

अकसर देखने में यह आता है कि जिन व्यक्तियों के पास खाने की कोई कमी नहीं, उनके पास उन्हें खाकर पचाने की सामर्थ्य नहीं होती। आप इसे यूं भी कह सकते हैं कि जिसके पास चने हैं, उसके पास उनका आनन्द उठाने के लिए दांत नहीं और जिसके पास दांत हैं, उसके पास चने नहीं। अभिप्राय यह है कि अत्यन्त धनवान् व्यक्ति भी ऐसे रोगों से ग्रस्त रहते हैं, जिन्हें साधारण या सादी चीज भी नहीं पचती, परंतु जो व्यक्ति खूब हृष्ट-पुष्ट हैं, तगड़े हैं, तथा जिनकी पाचनशक्ति भी तेज है, उनके पास अभाव के कारण खाने को ही कुछ नहीं होता। इसी प्रकार बहुत-से व्यक्तियों के पास धन-दौलत और वैभव की कोई कमी नहीं होती, परन्तु उनमें उसके उपभोग करने और दान देने की प्रवृत्ति नहीं होती। जिन व्यक्तियों में ये बातें समान रूप से मिलती हैं, चाणक्य उसे उनके पूर्वजन्म के तप का फल मानते हैं।
 
अर्थात् उनका यह कहना है कि खाने-पीने की वस्तुओं के साथ उन्हें पचाने की शक्ति, सुन्दर स्त्री के रहने पर मनुष्य में सम्भोग की शक्ति और धन के रहने पर उसका सदुपयोग और दान की प्रवृत्ति जिस व्यक्ति में होती है, वह बहुत भाग्यशाली होता है। इसे पिछले जन्म का सुफल ही मानना चाहिए।

सुख क्या है और सुख किसको मिलता है सुख?

जीवन-सुख में ही स्वर्ग है –

यस्य पुत्रो वशीभूतो भार्या छन्दानुगामिनी।

विभवे यस्य सन्तुष्टिस्तस्य स्वर्ग इहैव हि।।

आचार्य चाणक्य का कथन है कि जिसका पुत्र वशीभूत हो, पत्नी वेदों के मार्ग पर चलनेवाली हो और जो अपने वैभव से सन्तुष्ट हो, उसके लिए यहीं स्वर्ग है।

अभिप्राय यह है कि जिस मनुष्य का पुत्र आज्ञाकारी होता है, सब प्रकार से कहने में होता है पत्नी धार्मिक और उत्तम चाल-चलनवाली होती है, सद्गृहिणी होती है तथा जो अपने पास जितनी भी धन-सम्पत्ति है, उसी में खुश रहता है, सन्तुष्ट रहता है, ऐसे व्यक्ति को इसी संसार में स्वर्ग का सुख प्राप्त होता है। उसके लिए पृथ्वी में ही स्वर्ग हो जाता है। क्योंकि पुत्र का आज्ञापालक होना, स्त्री का पतिव्रता होना और मनुष्य का धन के प्रति लोभ-लालच न रखना अथवा मन में सन्तोष बनाए रखना ही स्वर्ग के मिलनेवाले सुख के समान है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि स्वर्ग अनेक शुभ अथवा पुण्य कार्यों के अर्जित करने से ही प्राप्त होता है। उसी प्रकार इस संसार में ये तीनों सुख भी मनुष्य को पुण्य कर्मों के सुफल रूप ही प्राप्त होते हैं। जिस व्यक्ति को ये तीनों सुख प्राप्त हों, उसे बहुत भाग्यशाली समझना चाहिए।

सार्थकता में ही सम्बन्ध का सुख –

ते पुत्रा ये पितुर्भक्ताः सः पिता यस्तु पोषकः।

तन्मित्रम् यत्र विश्वासः सा भार्या या निवृतिः।।

आचार्य चाणक्य का कथन है कि पुत्र वही है, जो पिता का भक्त है। पिता वही है, जो पोषक है, मित्र वही है, जो विश्वासपात्र हो। पत्नी वही है, जो हृदय को आनन्दित करे। अर्थात् पिता की आज्ञा को माननेवाला और सेवा करनेवाला ही पुत्र कहा जाता है। अपने बच्चों का सही पालन-पोषण, देख-रेख करनेवाला और उन्हें उचित शिक्षा देकर योग्य बनानेवाला व्यक्ति ही सच्चे अर्थ में पिता है। जिस पर विश्वास हो, जो विश्वासघात न करें, वही सच्चा मित्र होता है। पति को कभी दुःखी न करनेवाली तथा सदा उसके सुख का ध्यान रखनेवाली ही पत्नी कही जाती है।

अभिप्राय यह है कि इस संसार में सम्बन्ध तो अनेक प्रकार के हैं, परन्तु निकट के सम्बन्ध के रूप में पिता, पुत्र, माता और पत्नी ही माने जाते हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि सन्तान वही जो माता पिता की सेवा करे वरना वह सन्तान व्यर्थ है। इसी प्रकार अपनी सन्तान और अपने परिवार का भरण-पोषण करनेवाला व्यक्ति ही पिता कहला सकता है और मित्र भी ऐसे व्यक्ति को ही माना जा सकता है जिस पर कभी भी किसी प्रकार से अविश्वास न किया जा सके। जो सदा विश्वासी रहे, अपने अनुकूल आचरण से पति को सुख देनेवाली स्त्री ही सच्चे अर्थों में पत्नी कहला सकती है। इसका अर्थ यह है कि नाम और सम्बन्धों के बहाने एक-दूसरे से जुड़े रहने में कोई सार नहीं, सम्बन्धों की वास्तविकता तो तभी तक है जब सब अपने कर्तव्य का पालन करते हुए एक-दूसरे को सुखी बनाने का प्रयत्न करें और सम्बन्ध की वास्तविकता का सदा निर्वाह करें।

छली मित्र को त्याग दें

परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।

वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम्।।

आचार्य चाणक्य का कथन है कि पीठ पीछे काम बिगाड़नेवाले तथा सामने प्रिय बोलनेवाले ऐसे मित्र को मुंह पर दूध रखे हुए विष के घड़े के समान त्याग देना चाहिए। अभिप्राय यह है कि एक विष भरे घड़े के ऊपर यदि थोड़ा-सा दूध डाल दिया जाए तो फिर भी वह विष का ही घड़ा कहा जाता है। इसी प्रकार मुंह के सामने चिकनी-चुपड़ी बातें करनेवाला और पीठ पीछे काम बिगाड़नेवाला मित्र भी इस विष भरे घड़े के समान होता है। विष के घड़े को कोई भी व्यक्ति नहीं अपना सकता। इसलिए इस प्रकार के मित्र को त्याग देना ही उचित है। सच तो यह है कि ऐसे व्यक्ति मित्र कहे ही नहीं जा सकते। इन्हें शत्रु ही समझना चाहिए।

न विश्वसेत्कुमित्रे च मित्रे चापि न विश्वसेत्।

कदाचित्कुपितं मित्रं सर्वं गुह्यं प्रकाशयेत्॥

आचार्य चाणक्य का कथन है कि कुमित्र पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए और मित्र पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए। कभी कुपित होने पर मित्र भी आपकी गुप्त बातें सबको बता सकता है। अभिप्राय यह है कि दुष्ट-चुगलखोर मित्र का भूलकर विश्वास नहीं करना चाहिए। साथ ही कितना ही लंगोटिया यार क्यों न हो, उसे भी अपनी राज की बातें नहीं बतानी चाहिए। हो सकता है वह आपसे नाराज हो जाए और आपका कच्चा चिट्ठा सबके सामने खोल दे। इस पर आपको पछताना पड़ सकता है क्योंकि आपका भेद जानकर वह मित्र स्वार्थ में आपका भेद खोल देने की धमकी देकर आपको अनुचित कार्य करने के लिए विवश कर सकता है। अतः आचार्य चाणक्य का विश्वास है कि जिसे आप अच्छा मित्र समझते हैं उसे भी अपने रहस्यों का भेद न दें। कुछ बातों का पर्दा रखना आवश्यक है।

समस्या को जड़ से खत्म करें

हम सभी लोग समस्या को सिर्फ solve करने के लिए लगे रहते हैं, लेकिन चाणक्य जी कहते हैं की समस्या को सिर्फ समाधान ही नहीं बल्कि उसको जड़ से खत्म करें। हममें से ज्यादातर लोगों को ये आदत होती है प्रॉब्लम को धीरे धीरे solve करते रहते हैं। लेकिन कभी ये नहीं सोचते हैं की उस प्रॉब्लम को हमें जड़ से खत्म कर देना चाहिए, ताकि उसी प्रकार की कोई प्रॉब्लम भविष्य में न आये। यदि आप एक स्टूडेंट है तो ये बात आप अच्छे से समझ पाएंगे, और यदि हिंदी मध्यम से है फिर तो बहुत ही अच्छे से समझ पाएंगे, आपने इंग्लिश सीखने के लिए नजाने कितनी बार Tense सीखे, अगली क्लास में गए फिर से टेंस सीखे आप बड़े हुए फिर आप किसी कोचिंग क्लास में गए आपने फिर से टेंस सिखने की शुरुवात की। लेकिन हुआ क्या, आप टेंस भी नहीं सीख पाए और न ही इंग्लिश सीख पाए। इसका मतलब क्या आपने थोड़े समय के लिए प्रॉब्लम को solve जरूर किया, जब तक जरुरत थी, एग्जाम में आते थे आपने solve जरूर किया, लेकिन उस प्रॉब्लम को हमेशा के लिए जड़ से खत्म नहीं किया। इसलिए बार बार आपको वो चीज सीखने की जरुरत पड़ी।

एक बार चाणक्य जी के साथ भी ऐसा ही हुआ वो जंगल के रास्ते अपने शिष्य के साथ कही जा रहे थे और उनके पेरो में कांटा गड गया, उन्हें बहुत गुस्सा आया। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा की इन सारे काँटों को उखाड़ फेंको ! और जाओ कही से छाछ ढूंढ कर लाओ। उनकी शिष्यों ने जैसे तैसे कही से छाछ ढूंढ कर लाये। लेकिन शिष्यों ने पूछा की ये छाछ क्यों मंगवाया है ! चाणक्य ने शिष्यों से उस छाछ को लिया और उस कांटे वाली जगह पर पूरा का पूरा छाछ डाल दिया और अपने शिष्यों को समझाया की जब तुमने इस कांटे को उखाड़ा था तो ये थोड़े दिन के बाद वापस से उग जाते। लेकिन इसमें मैंने अब छांछ डाल दिया है, कुछ ही समय बाद यहाँ पे चीटियां आ जाएगी और पूरी की पूरी कांटे के तने को जड़ के सहित खा जाएगी। इससे कांटे वापस नहीं आ पाएंगे और जड़ सहित खत्म हो जाएँगी। इसलिए जीवन में हमेशा याद रखे की प्रॉब्लम को सिर्फ solve न करें उन्हें जड़ से खत्म कर दें।

आवश्यकता से ज्यादा सीधा मत होना

चाणक्य जी कहते हैं की जंगल में यदि आप जाओगे तो सीधी लकड़ी को ही पहला कटा पाओगे, जो टेढ़ी लकड़ी होती है उन्हें कोई हाथ भी नहीं लगाता है। इस बात को आपने अपने जीवन में भी जरूर महसूस किया होगा की जितना आप सीधा बनेंगे, लोग आपको उतना ही कमजोर समझेंगे और परेशान करेंगे। इसलिए आप जरुरत से ज्यादा सीधे न बने। परिस्थिति के अनुसार अपने आपको ढाल ले। मैंने पहले आपको बताया है की चाणक्य जी बहुत कटु सत्य बोलते हैं जो सुनने में बहुत कड़वा लगता है। लेकिन जीवन के लिए बहुत ही सही होता है।

अपने रहस्य किसी को न बताएं

चाणक्य जी कहते हैं की अपनी सीक्रेट्स को कभी भी किसी को मत बताना क्यूंकि वही आपकी बर्बादी का कारण बन सकता है। यहाँ पर महाभारत की एक घटना आपको बताता हूँ जो इस बात की सटीकता बताती है। आप सभी ने सुना होगा की महिलाओं के पेट में कोई बात नहीं छुपती। जब भी उन्हें कोई बात पता चलती है तो उनका मन करता है की वो किसी और को वो बातें बता दें। इस बात को महाभारत की एक श्राप से जोड़ा जाता है। माता कुंती ने अपने पांचो बेटों को कभी नहीं बताया था की कर्ण उन्हीं के भाई हैं।

जब कर्ण की मृत्यु हो गयी तब जाकर माता कुंती ने अपने पांचो पुत्रों को बताया की कर्ण तुम्हारे ही भाई थे और इसी बात से गुस्सा होकर युधिष्ठिर ने माता कुंती को श्राप दिया और साडी महिलाओं को श्राप दिया की आज के बाद आपके पेट में कोई भी बात नहीं रह पायेगी। और चाणक्य जी कहते हैं की अपने रहस्यो को किसी को बताइये मत। अपने पास दबा कर रखिये नहीं तो यही आपकी बर्बादी का कारण बन सकती है।

हर रिश्ते के पीछे स्वार्थ होता है

चाणक्य जी कहते हैं की दुनिया की हर रिश्ते के पीछे कुछ न कुछ स्वार्थ जरूर छुपा होता है, चाहे माँ-बाप हो, चाहे भाई-बहन, चाहे कोई दोस्त हों या फिर कोई भी रिश्ता हो, उसके पीछे कोई न कोई स्वार्थ जरूर छुपा होता है। शुरू शुरू में तो आपको सारे रिश्ते बहुत अच्छे लगते हैं, लेकिन धीरे धीरे करके उनके स्वार्थ का आपको पता चलता जाता है और फिर आपको पता चलता है की रिश्ता क्यों बनाया। किसी का स्वार्थ बड़ा हो सकता और किसी का छोटा हो सकता है। लेकिन हर इंसान आपसे कुछ न कुछ पाने की उम्मीद जरूर करता है।

सोच समझ कर विश्वास करें

चाणक्य जी यहाँ एक बहुत ही कड़वी सत्य कहते हैं की जो व्यक्ति आपका मित्र नहीं हैं उसपर तो आपको भरोसा करना ही नहीं चाहिए, लेकिन जो व्यक्ति आपका मित्र है उसपर भी बहुत ही सोच समझ कर आपको भरोसा करना चाहिए। क्यूंकि भविष्य में जब भी आपका उससे झगड़ा होगा तो वो आपकी सीक्रेट बातें कही और जाकर बोल देगा। ये तो हर इंसान के साथ होता है और जरूर आपके साथ भी हुआ होगा। किसी व्यक्ति के साथ आपकी सालो साल दोस्ती चली, लेकिन किसी कारण वस् वो दोस्ती टूट गयी। अब वो दूसरी के पास चला गया और उसने आपके सारे सीक्रेट वहां पर जाकर कह दिया। इससे आपको कोई बार बहुत बड़ी मुसीबतों का सामना भी करना पड़ता है। इसलिए आप हमेशा सावधान रहिये।

कहने के बजाये करके दिखाएं

यहाँ चाणक्य जी कहते हैं की अपनी बातों को अपने मन में रखें उसे लोगो को बताये न, उसे सीधे करके दिखाएं। चाणक्य जी का भरोषा था की बोलने से ज्यादा करके दिखाने में आपका भरोषा होना चाहिए। कई बार आपने लोगों को देखा होगा की मैं ये कर डालूंगा, वो कर डालूंगा, लेकिन उनसे होता कुछ नहीं है। तो आप ऐसे बोलबचन करने वाले बिलकुल न बनें। जो भी चीज आपके मन में है, जो टास्क आपके मन में है उसे मन में रखें और उसे सीधा लोगों को करके दिखाएं।

मुसीबत के लिए धन बचा कर रखें

चाणक्य जी यहाँ कहते हैं की मुसीबत के समय के लिए हमेशा धन जमा करके रखें। ऐसा न सोचें की धनवान व्यक्ति को मुसीबत कैसी!कई लोगों को ऐसा लगता है की मेरे पास तो बहुत सारा पैसा है मेरे पास बहुत सारी जायदाद है तो फिर मुझ पर मुसीबत नहीं आ सकती। लेकिन ध्यान रखिये की जब मुसीबत आती है तो इकट्ठा किया हुआ धन भी तेजी से घटता है।

मन का भाव गुप्त ही रखें

मनसा चिन्तितं कार्यं वाचा नैव प्रकाशयेत्।

मन्त्रेण रक्षयेद् गूढं कार्य चाऽपि नियोजयेत्।।

आचार्य चाणक्य का कथन है कि मन में सोचे हुए कार्य को मुंह बाहर नहीं से निकालना चाहिए। मन्त्र के समान गुप्त रखकर उसकी रक्षा करनी चाहिए। गुप्त रखकर ही उस काम को करना भी चाहिए। अभिप्राय यह है कि मन में जो भी काम करने का विचार हो, उसे मन में ही रखना चाहिए; किसी को बताना नहीं चाहिए।

मन्त्र के समान गोपनीय रखकर चुपचाप काम शुरू कर देना चाहिए। जब काम चल रहा हो, उस समय ही उसका ढिंढोरा नहीं पीटना चाहिए। बता देने पर यदि काम पूरा न हुआ तो हंसी होती है। कोई शत्रु काम बिगाड़ भी सकता है। काम पूरा होने पर फिर सबको मालूम हो ही जाता है क्योंकि मनोविज्ञान का नियम है कि आप जिस कार्य के लिए अधिक चिन्तन-मनन करेंगे और चुपचाप उसे कार्य रूप में परिणत करेंगे उसमें सिद्धि प्राप्त करने के अवसर निश्चित मिलेंगे इसीलिए आचार्य का कथन है कि मन में सोची हुई बात या कार्य-योजना कार्य रूप में लाने से पहले प्रकट नहीं करनी चाहिए। इसी में सज्जनों की भलाई है।

पराधीनता

कष्टं च खलु मूर्खत्वं कष्ट च खलु यौवनम्।

कष्टात्कष्टतरं चैव परगे हनिवासनम्॥

आचार्य का कहना है कि मूर्खता कष्ट है, यौवन भी कष्ट है, किन्तु दूसरों के घर में रहना कष्टों का भी कष्ट है। वस्तुतः मूर्खता अपने-आपमें एक कष्ट है और जवानी भी व्यक्ति को दुःखी करती है। इच्छाएं पूरी न होने पर भी दु:ख तथा कोई भला-बुरा काम हो जाए, तो भी दुःख। इन दुःखों से भी बड़ा दुःख है-पराये घर में रहने का दु:ख। पर-घर में न तो व्यक्ति स्वाभिमान के साथ रह सकता है और न अपनी इच्छा से कोई काम ही कर सकता है। क्योंकि मूर्ख व्यक्ति को उचित-अनुचित का ज्ञान न होने के कारण हमेशा कष्ट उठाना पड़ता है। इसीलिए कहा गया है कि मूर्ख होना अपने-आप में एक बड़ा अभिशाप है।

कौन-सी बात उचित है और कौन-सी अनुचित है, यह जानना जीवन के लिए आवश्यक होता है। इसी भांति जवानी बुराइयों की जड़ है। कहा तो यहां तक गया है कि जवानी अन्धी और दीवानी होती है। जवानी में व्यक्ति काम के आवेग में विवेक खो बैठता है, उसे अपनी शक्ति पर गुमान हो जाता है। उसमें इतना अहं भर जाता है कि वह अपने सामने किसी दूसरे व्यक्ति को कुछ समझता ही नहीं। जवानी मनुष्य को विवेकहीन ही नहीं, निर्लज्ज भी बना देती है, जिसके कारण व्यक्ति को अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं। ऐसे में व्यक्ति को यदि दूसरे के घर में रहना पड़े तो उसे दूसरे की कृपा पर उसके घर की व्यवस्था का अनुसरण करते हुए रहना पड़ेगा। इस तरह वह अपनी स्वतंत्रता गंवा देगा। तभी तो कहा गया-‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं’। इसीलिए इन पर विचार करना चाहिए।

साधु पुरुष

शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे।

साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने॥

आचार्य चाणक्य ने कहा है कि न प्रत्येक पर्वत पर मणि-माणिक्य ही प्राप्त होते हैं न प्रत्येक हाथी के मस्तक से मुक्ता-मणि प्राप्त होती है। संसार में मनुष्यों की कमी न होने पर भी साधु पुरुष सब जगह नहीं मिलते। इसी प्रकार सभी वनों में चन्दन के वृक्ष उपलब्ध नहीं होते। यहां अभिप्राय यह है कि अनेक पर्वतों पर मणि-माणिक्य मिलते हैं, परन्तु सभी पर्वतों पर नहीं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि कुछ हाथी ऐसे होते हैं जिनके मस्तक में मणि विद्यमान रहती है, परन्तु ऐसा सभी हाथियों में नहीं । इसी प्रकार इस पृथ्वी पर पर्वतों और जंगलों अथवा वनों की कमी नहीं, परन्तु सभी वनों में चन्दन नहीं मिलता। इसी प्रकार सभी जगह साधु व्यक्ति नहीं दिखाई देते।

साधु शब्द से आचार्य चाणक्य का अभिप्राय यहां सज्जन व्यक्ति से है। अर्थात् ऐसा व्यक्ति जो दूसरों के बिगड़े हुए काम को बनाता हो, जो अपने मन को निवृत्ति की ओर ले जाता हो और नि:स्वार्थ भाव से समाज-कल्याण की इच्छा करता हो। साधु का अर्थ यहां केवल भगवे कपड़े पहननेवाले दिखावटी संन्यासी व्यक्ति से नहीं है। यहां इसका भाव आदर्श समाजसेवी व्यक्ति से है, परन्तु ऐसे आदर्श व्यक्ति सब जगह कहां मिलते हैं! वे तो दुर्लभ ही हैं। जहां भी मिलें उनका यथावत् आदर-सम्मान ही करना चाहिए।

पिता का पुत्र के प्रति कर्तव्य क्या होना चाहिए?

पुनश्च विविधैः शीलैर्नियोज्या सततं बुधैः।

नीतिज्ञा शीलसम्पन्नाः भवन्ति कुलपूजिताः॥

आचार्य चाणक्य यहां पुत्र के संबंध में उपदेश करते हुए कहते हैं कि बुद्धिमान लोगों का कर्तव्य है कि पुत्र को सदा अनेक प्रकार से सदाचार की शिक्षा दें। नीतिज्ञ सदाचारी पुत्र ही कुल में पूजे जाते हैं। अर्थात् पिता का सबसे बड़ा कर्तव्य है कि पुत्र को अच्छी शिक्षा दे। शिक्षा केवल विद्यालय में ही नहीं होती। अच्छे आचरण की, व्यवहार की शिक्षा देना पिता का पावन कर्तव्य है। अच्छे आचरणवाले पुत्र ही अपने कुल का नाम ऊंचा करते हैं। नीतिज्ञ और शील सम्पन्न पुत्र ही कुल में सम्मान पाते हैं। नेतागण कहा करते हैं कि आज के युवा ही कल के नागरिक हैं। वही देश के भविष्य हैं तो उनका सही भविष्य बनाने की दिशा में सही कदम उठाना माता-पिता और समाज का परम कर्तव्य है।

माता शत्रुः पिता वैरी येनवालो न पाठितः।

न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये वको यथा।।

यहां आचार्य चाणक्य सन्तान की शिक्षा के बारे में माता-पिता के कर्तव्य का उपदेश करते हुए कहते हैं कि बच्चे को न पढ़ानेवाली माता शत्रु तथा पिता वैरी के समान होते हैं। बिना पढ़ा व्यक्ति पढ़े लोगों के बीच में हंसों में कौए के समान शोभा नहीं पाता। अभिप्राय यह है कि जो हालत हंसों के बीच में आ जाने पर कौए की हो जाती है, ठीक वही दशा पढ़े-लिखे, सुशिक्षित लोगों के बीच में जाने पर अपढ़ व्यक्ति की हो जाती है। इसलिए बच्चे को न पढ़ानेवाले मां-बाप ही उसके शत्रु होते हैं। इस सम्बन्ध में आचार्य चाणक्य मानते हैं कि धन ही नहीं शिक्षा भी व्यक्ति को आदर योग्य बनाती है और शिक्षा से हीन व्यक्ति बिना पूंछ और सींगवाले पशु के समान है। इस सम्बन्ध में आचार्य चाणक्य मानते हैं कि धन ही नहीं शिक्षा भी व्यक्ति को आदर योग्य बनाती है और शिक्षा से हीन व्यक्ति बिना पूंछ और सींगवाले पशु के समान है।

लालनाद् बहवो दोषास्ताडनाद् बहवो गुणाः।

तस्मात्पुत्रं च शिष्यं च ताडयेन्न तु लालयेत्॥

आचार्य चाणक्य बालक के लालन-पालन में, लाड़-प्यार के सन्दर्भ में उसके अनुपात और सार के बारे में उपदेश करते हुए कहते हैं कि अधिक लाड़ से अनेक दोष तथा ताड़न से गुण आते हैं। इसलिए पुत्र को और शिष्य को लालन की नहीं ताड़न की आवश्यकता होती है। अभिप्राय यह है कि अधिक लाड़-प्यार करने से बच्चे बिगड़ जाते हैं। उसके साथ सख्ती करने से ही वे सुधरते हैं। इसलिए बच्चों और शिष्य को अधिक लाड़-प्यार नहीं देना चाहिए। उनके साथ सख्ती ही करनी चाहिए। इसलिए चाणक्य का परामर्श है कि माता-पिता अथवा गुरु को अपने पुत्र अथवा शिष्य का इस बात के लिए ध्यान रखना चाहिए कि उसमें कोई बुरी आदतें घर न कर जायें। उनसे बचाने के लिए उनकी ताड़ना आवश्यक है, ताकि बच्चा गुणों की ओर आकर्षित हो और दोष ग्रहण से बचे।

स्वाध्याय

श्लोकेन वा तदर्द्धन तदर्धाऽर्धाक्षरेण वा।

अबन्ध्यं दिवसं कुर्याद् दानाध्ययनकर्मभि॥

यहां आचार्य स्वाध्याय की महत्ता प्रतिपादित करते हुए कह रहे हैं कि व्यक्ति को चाहिए कि वह किसी एक श्लोक का या आधे या उसके भी आधे अथवा एक अक्षर का ही सही मनन करे। मनन, अध्ययन, दान आदि कार्य करते हुए दिन को सार्थक करना चाहिए। अभिप्राय यह है कि कम-से-कम जितना भी हो सके, मनुष्य को अपने कल्याण के लिए मनन अवश्य करना चाहिए। मनन करना, अध्ययन करना तथा लोगों की सहायता करना-ये मनुष्य-जीवन के अनिवार्य कर्तव्य हैं। ऐसा करने पर ही जीवन सार्थक होता है। क्योंकि मानव जीवन अमूल्य है। उसका एक-एक दिन, एक-एक क्षण अमूल्य है, उसे सफल बनाने के लिए स्वाध्याय, चिंतन-मनन एवं दान आदि सत्कर्म करते रहना चाहिए। यह जीवन का नियम ही बना लिया जाए तो सर्वोत्तम है।

आसक्ति विष है

कान्तावियोग स्वजनापमानो ऋणस्य शेषः कुनृपस्य सेवा।

दरिद्रभावो विषया सभा च विनाग्निमेते प्रदहन्ति कायम्॥

यहां आचार्य जीवन में त्याज्य स्थितियों पर विचार करते हुए व्यक्ति को उपदेश करते हुए कहते हैं कि प्रियतमा का पत्नी से वियोग, स्वजनों से अपमान होना, ऋण का न चुका पाना, दुष्ट राजा की सेवा, दरिद्रता और धूर्त लोगों की सभा, ये बातें बिना अग्नि के ही शरीर को जला देते हैं।

अभिप्राय यह है कि एक आग सबको दिखाई देती है, यह बाहरी अग्नि है किन्तु एक आग अन्दर-ही-अन्दर से व्यक्ति को जलाती रहती है, उसे कोई देख भी नहीं सकता। पत्नी से अत्यधिक प्रेम हो, किन्तु उससे बिछुड़ना पड़ जाए। परिवारवालों की कहीं पर बेइज्जती हो जाए, कर्ज को चुकाना मुश्किल हो जाए, दुष्ट राजा की नौकरी करनी पड़े, गरीबी छूटे नहीं, दुष्ट लोग मिलकर कोई सभा कर रहे हों ! ऐसी मजबूरी में बेचारा आदमी अन्दर-ही-अन्दर जलता रहता है। उसकी तड़पन को कोई देख भी नहीं सकता। यह ऐसी ही न दीखनेवाली आग है।

विनाश का कारण

नदीतीरे च ये वृक्षाः परगेहेषु कामिनी।

मन्त्रिहीनाश्च राजानः शीघ्रं नश्यन्त्यसंशयम्॥

आचार्य चाणक्य नीति के वचनों के क्रम में यहां उपदेश कर रहे हैं कि तेज बहाववाली नदी के किनारे लगनेवाले वृक्ष, दूसरे के घर में रहनेवाली स्त्री, मन्त्रियों से रहित राजा लोग- ये सभी शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। भाव यह है कि नदी की धारा अनिश्चित रहने के कारण उसके किनारे उगनेवाले वृक्ष शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। क्योंकि उनकी जमीन पेड़ों के बोझ को सह नहीं पाती और जड़ें उखड़ने लगती हैं। उसी प्रकार दूसरे के घर गयी हुई स्त्री भी चरित्र की दृष्टि से सुरक्षित नहीं रह पाती उसका सतीत्व शंका के दायरे में आ जाता है।

इस सन्दर्भ में किसी नीतिकार ने ही कहा है –

लेखनी पुस्तिका दाराः परहस्ते गता गताः।

आगता दैवयोगेन नष्टा भ्रष्टा च मर्दिता॥

अर्थात् लेखनी (कलम), पुस्तक और स्त्री दूसरे के हाथ में चली गयीं तो गंवाई गयी ही समझें। यदि दैवयोग से वापस लौट भी आईं तो उनकी दशा नष्ट, भ्रष्ट और मर्दित रूप में ही होती है। इसी प्रकार राजा का बल मन्त्री होता है। मन्त्री राजा को सन्मार्ग में प्रवृत्त एवं कुमार्ग से हटाता है। उसका न होना राजा के लिए घातक है। इसलिए राजा के पास मन्त्री भी होना चाहिए।

व्यक्ति का बल

बलं विद्या च विप्राणां राज्ञः सैन्यं बलं तथा।

बलं वित्तं च वैश्यानां शूद्राणां च कनिष्ठता ।।

आचार्य चाणक्य का यहां कथन है कि विद्या ही ब्राह्मणों का बल है। राजा का बल सेना है। वैश्यों का बल धन है तथा सेवा करना शूद्रों का बल है। अभिप्राय यह है कि ज्ञान-विद्या ही ब्राह्मण का बल माना गया है। अध्ययन-स्वाध्याय ही उसका मुख्य कर्म-क्षेत्र है उसी में उसे निपुण होना चहिए तभी वह आदरणीय होगा। राजाओं का बल उनकी सेना होती है। क्योंकि सैन्य-शक्ति के बल पर ही वह अपने राज्य की सीमाएं सुरक्षित रख सकता है। इसी प्रकार धन वैश्यों का बल तथा सेवा करना शूद्रों का बल है। यही उनके कार्य-क्षेत्र का वैशिष्ट्य है।

दुनिया की रीति

निर्धनं पुरुष वेश्यां प्रजा भग्नं नृपं त्यजेत्।

खगाः वीतफलं वृक्ष भुक्त्वा चाभ्यागतो गृहम्॥

आचार्य चाणक्य यहां प्राप्ति के बाद वस्तु के प्रति उपयोगिता ह्रास के नियम को लगाते हुए कहते हैं कि यह प्रकृति का नियम है कि पुरुष के निर्धन हो जाने पर वेश्या पुरुष को त्याग देती है। प्रजा शक्तिहीन राजा को और पक्षी फलहीन वृक्ष को त्याग देते हैं। इसी प्रकार भोजन कर लेने पर अतिथि घर को छोड़ देता है।

अभिप्राय यह है कि वेश्या अपने पुराने ग्राहक को भी उसके गरीब पड़ जाने पर छोड़ देती है। राजा जब बुरे समय में शक्तिहीन हो जाता है, तो उसकी प्रजा भी उसका साथ छोड़ देती है। वृक्ष के फल समाप्त हो जाने पर पक्षी उस वृक्ष को त्याग देते हैं। घर में भोजन की इच्छा से आया हुआ कोई राहगीर भोजन कर लेने के बाद घर को छोड़कर चला जाता है। अपना उल्लू सीधा होने तक ही लोग मतलब रखते हैं। यहीं प्रकृति की उपयोगिता समाप्त हो जाने के बाद वस्तु के प्रति बदले दृष्टिकोण का संकेत है। इस संदर्भ में यहां आचार्य चाणक्य ने कुछ उदाहरण से व्यक्ति के कर्तव्य-पालन पर बल दिया है। धन के कारण वेश्या जिसे अपना प्रेमी कहती है, निर्धन होने पर उससे मुंह मोड़ लेती है। इसी प्रकार अपमानित राजा को प्रजा त्याग देती है और सूखे ठूंठ वृक्ष से पक्षी उड़ जाते हैं। इसी प्रकार अतिथि को चाहिए कि वह भोजन करने के उपरान्त गृहस्थ का साधुवाद करके घर को त्याग दे। वहां डेरा डालने की न सोचे, नहीं तो ऐसा हो सकता है कि संकोच का त्याग करके उसे जाने के लिए कहना पड़े। उसे यह समझना चाहिए कि सम्मान की रक्षा इसी में है कि वह भोजन करने के पश्चात् स्वयं जाने के लिए आज्ञा मांग ले। यही उचित भी है।

गृहीत्वा दक्षिणां विप्रास्त्यजन्ति यजमानकम्।

प्राप्तविद्या गुरुं शिष्याः दग्धारण्यं मृगास्तथा ।।

यहां आचार्य चाणक्य जग की रीति पर चर्चा करते हुए कहते हैं कि दक्षिणा ले लेने पर ब्राह्मण यजमान को छोड़ देते हैं, विद्या प्राप्त कर लेनेपर शिष्य गुरु को छोड़ देते हैं और वन में आग लग जाने पर वन के पशु वन को त्याग देते हैं। अभिप्राय यह है कि ब्राह्मण दक्षिणा लेने तक ही यजमान के पास रहता है। दक्षिणा मिल जाने पर वह यजमान को छोड़ देता है और अन्यत्र की सोचने लगता है। शिष्य अध्ययन करने तक ही गुरु के पास रहते हैं। विद्याएं प्राप्त कर लेने पर वे गुरु को छोड़कर चले जाते हैं और जीवन कार्य के प्रति विचार करते हुए अगली योजना में लग जाते हैं। इसी प्रकार हिरण आदि वन के पशु वन में तभी तक रहते हैं, जब तक वन हरा-भरा रहता है। यदि वन में आग लग जाए, तो पक्षी वहां रहने की संभावनाएं समाप्त जानकर अन्यत्र डेरा जमाने के विचार से उड़ जाते हैं या दौड़ लगा जाते हैं। अर्थात् व्यक्ति किसी आश्रय या उपलब्धि-स्रोत पर तभी तक निर्भर करता है जब तक उसे वहां अपना लक्ष्य पूर्ण होता दिखलाई पड़ता है। लक्ष्य पूर्ण होने पर उपयोगिता-ह्रास का नियम लागू हो जाता है।

दुष्कर्मों से सचेत रहें

दुराचारी च दुर्दृष्टिर्दुराऽऽवासी च दुर्जनः।

यन्मैत्री क्रियते पुम्भिर्नरः शीघ्र विनश्यति॥

यहां आचार्य चाणक्य दुष्कर्म के परिणाम के प्रति सचेत करते हुए कह रहे हैं कि दुराचारी, दुष्ट स्वभाववाला, बिना किसी कारण दूसरों को हानि पहुंचानेवाला तथा दुष्ट व्यक्ति से मित्रता रखनेवाला श्रेष्ठ पुरुष भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है क्योंकि संगति का प्रभाव बिना पड़े नहीं रहता है यह उक्ति तो प्रसिद्ध है ही कि खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति दुष्ट व्यक्तियों के साथ रहता है तो उनकी संगति का प्रभाव उस पर अवश्य पड़ेगा। दुर्जनों के संग में रहनेवाला व्यक्ति अवश्य दुःखी होगा। इसी बात को ध्यान में रखकर तुलसीदासजी ने भी कहा है -“दुर्जन संग न देह विधाता। इससे भलो नरक का वासा॥” इसलिए व्यक्ति को चाहिए कि वह कुसंगति से बचे।

मित्रता बराबर की

समाने शोभते प्रीती राज्ञि सेवा च शोभते।

वाणिज्यं व्यवहारेषु स्त्री दिव्या शोभते गृहे||

यहां आचार्य मित्रता व व्यवहार में समानता के स्तर पर शोभा का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कह रहे हैं कि समान स्तरवालों से ही मित्रता शोभा देती है। सेवा राजा की शोभा देती है। वैश्यों को व्यापार करना शोभा देता है। शुभ स्त्री घर की शोभा है। अभिप्राय यह है कि मित्रता बराबरवालों से ही करनी चाहिए। सेवा राजा की ही करनी चाहिए। ऐसा करना ही इन कार्यों की शोभा है। वैश्यों की शोभा व्यापार करना है तथा घर की शोभा शुभ लक्षणोंवाली पत्नी है क्योंकि कहा गया है कि ‘जाही का काम वाही को साजे, और करे तो डण्डा बाजे’ यानि जिसका जो कार्य है वही करे तो ठीक वरना परिणाम सही नहीं रहता।

दोष कहाँ नहीं है?

कस्य दोषः कुले नास्ति व्याधिना को न पीडितः।

व्यसनं केन न प्राप्तं कस्य सौख्यं निरन्तरम्॥

यहां आचार्य चाणक्य का कथन यह है कि दोष कहां नहीं है? इसी आशय से उनका कहना है कि किसके कुल में दोष नहीं होता? रोग किसे दुःखी नहीं करते? दु:ख किसे नहीं मिलता और निरंतर सुखी कौन रहता है अर्थात् कुछ-न-कुछ कमी तो सब जगह है और यह एक कड़वी सच्चाई है। दुनिया में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है, जो कभी बीमार न पड़ा हो और जिसे कभी कोई दुःख न हुआ हो या जो सदा सुखी ही रहा हो। तो फिर संकोच या दुःख किस बात का? इसलिए व्यक्ति को अपनी कमियों को लेकर अधिक चिन्ता नहीं करनी चाहिए बल्कि कमियों के रहते भी आचरण पर ध्यान देते हुए उसे अन्य मानवीय गुणों से सम्पन्न करना चाहिए ताकि व्यक्तित्व को पूर्णता प्राप्त हो सके। क्योंकि निरन्तर सुख तो संसार में किसी को भी प्राप्त नहीं होता। आज दुःख है तो कल सुख भी होगा।

आज सुख है तो कल दु:ख भी होगा। यही जग की रीति है। आपको बस करना यह है कि जब भी दुःख मिलता है या बीमार होते हैं तो धीरज रखना ही आपके लिए सबसे उत्तम कार्य है। बीमार है तो दबाईया लीजिये और दुःख है तो उसका कारण जानिए और उसका निवारण कीजिये। असल में जीवन जीने में जो ही लोग Simplicity के साथ लाइफ में आगे बढ़ते रहते है मतलब हर वो काम या चीज को सिंपल तरीकेसे करते हैं तो आपके लाइफ में दुःख आ ही नहीं सकते। और रहे बीमारी, तो अगर आप ज्यादा एक्सरसाइज और योग कीजिये और खान-पान में हेल्थी खाना खाये तो बीमार कमसे कम या ना के बराबर होगा। तो अभी अगर आपके लाइफ में दुःख है तो दुःख का कारण जानके उसका overcome करे। पैसा नहीं है तो काम कीजिये, किसी से कोई दुश्मनी ले रहे हैं तो उससे माफ़ी मांग ले, और सबसे प्यार से बातें कीजिये और जिसको हो सके उसको हेल्प कीजिये और हमेशा अपने फॅमिली का अच्छे से ध्यान रखें। तो लाइफ के सारे प्रॉब्लम धीरे धीरे गायब हो जायेगा।

लोगो के लक्षणों से आचरण का पता कैसे लग सकता है?

आचारः कुलमाख्याति देशमाख्याति भाषणम् ।

सम्भ्रमः स्नेहमाख्यति वपुराख्याति भोजनम्॥

आचार्य चाणक्य लक्षणों से प्राप्त संकेतों की चर्चा करते हुए कहते हैं कि आचरण से व्यक्ति के कुल का परिचय मिलता है। बोली से देश का पता लगता है। आदर-सत्कार से प्रेम का तथा शरीर को देखकर व्यक्ति के भोजन का पता चलता है। अभिप्राय यह है कि उच्च वंश का व्यक्ति शालीन होगा तथा शान्त और अच्छे स्वभाव का होगा ही, यह माना जाएगा और नीच वंश का आदमी उद्धत, बातूनी और मान-मर्यादा का खयाल न रखनेवाला होगा।

इस बात से तो प्रायः सभी परिचित हैं कि व्यक्ति अपनी बोली और उच्चारण से पहचाना जाता है कि वह किस प्रदेश का रहनेवाला है। यों तो बोली थोड़ी-थोड़ी दूरी पर थोड़ा बदल जाती है, परन्तु काफी बड़े क्षेत्र में मुख्य स्वर (लहजा) एक ही रहता है, बोलचाल की मूल भाषा एक जैसी रहती है। इसलिए यह पहचानने में दिक्कत नहीं होती कि व्यक्ति कहां का रहनेवाला है।

इसी प्रकार व्यक्ति के हाव-भाव और क्रियाओं से उसके मन के विचारों का पता चल जाता है कि उसका स्नेह-आचरण वास्तविक है या बनावटी, क्योंकि मन की भावनाओं के अनुरूप ही व्यक्ति कार्य करता है। मन की भावनाओं की झलक उसके कार्यों में अवश्य मिलती है। उसके व्यवहार से ही पता चल जाता है कि उसका स्नेह दिखावटी है या असली। अधिक देर तक कोई भी व्यक्ति अपनी भावनाओं को छिपाये नहीं रख सकता। आचार्य चाणक्य का यह कथन सही है कि व्यक्ति की देह से उसकी खुराक का अनुमान लगाया जा सकता है। चाणक्य ने यहां सामान्यतया लागू होनेवाली बातें ही कही हैं और ये संकेत व्यक्ति की सामान्य झलक से ही मिल जाते हैं।

व्यवहार कुशल बनें

सकुले योजयेत्कन्या पुत्रं पुत्रं विद्यासु योजयेत्।

व्यसने योजयेच्छत्रु मित्रं धर्मे नियोजयेत्॥

यहां आचार्य चाणक्य व्यावहारिकता की चर्चा करते हुए कहते हैं कि कन्या का विवाह किसी अच्छे घर में करना चाहिए, पुत्र को पढ़ाई-लिखाई में लगा देना चाहिए, मित्र को अच्छे कार्यों में तथा शत्रु को बुराइयों में लगा देना चाहिए। यही व्यावहारिकता है और समय की मांग भी। आशय यह है कि कुशल व्यक्ति वही है, जो बेटी के विवाह योग्य होते ही उसका विवाह देख-भालकर किसी अच्छे खानदान में कर दे और बेटे को अधिक-से-अधिक शिक्षा दे। ताकि वह अपने जीवन में आजीविका की दृष्टि से आत्मनिर्भर बन सके। मित्र को मेहनत-परिश्रम, ईमानदारी की सीख दे ताकि सद्परामर्श से वह अपना जीवन सुधार सके और किसी अच्छे काम में लग जाए, किन्तु दुश्मन को बुरी आदतों का शिकार बना दे ताकि वह उसमें उलझकर आपको अनावश्यक रूप से तंग न कर सकें।

दुष्ट से कैसे बचें?

दुर्जनेषु च सर्पेषु वरं सर्पो न दुर्जनः।

सर्पो दंशति कालेन दुर्जनस्तु पदे-पदे॥

आचार्य चाणक्य यहां दुष्टता की दृष्टि से तुलना करते हुए उस पक्ष को रख रहे हैं जहां दुष्टता का दुष्प्रभाव कम-से-कम पड़े। उनका मानना है कि दुष्ट और साँप, इन दोनों में साँप अच्छा है, न कि दुष्ट। साँप तो एक ही बार डसता है, किन्तु दुष्ट तो पग-पग पर डसता रहता है। इसलिए दुष्ट से बचकर रहना चाहिए। साँप से आप दूर भाग के बच सकते हैं लेकिन दुष्ट से आप दूर भाग के भी बच नहीं सकते। दुष्ट आपको बार बार क्षति पहुँचाने कि कोशिश में लगे रहते हैं। दुष्ट व्यक्ति आपको कभी शांति से रहने नहीं देंगे। अभिप्राय यह है कि यदि यह पूछा जाय कि दुष्ट और साँप में से कौन अच्छा है? तो इसका उत्तर है – सांप।

सांप दुष्ट से हजार गुना अच्छा है, क्योंकि सॉप तो कभी-कभार किसी विशेष कारण पर ही मनुष्य को डसता है और उससे दूर रह के तो आप बच भी सकते हैं, किन्तु दुष्ट तो पग-पग पर डसता रहता है। दुष्ट का कोई भरोसा नहीं कि कब क्या कर बैठे और यह भी तथ्य है कि साँप तभी काटता है जब उस पर पांव पड़ जाए या वह किसी कारण भयभीत हो जाए लेकिन दुर्जन (दुष्ट) तो अकारण ही दुःख पहुंचाने का यत्न करता है। बार बार आपकी बुराई करने में लगे रहते हैं। आपको हर तरीकेसे क्षति पहुँचाने की कोशिश में लगे रहते हैं।

दुष्ट की पहचान

कभी आपको किसी अपने के बारे बुरा सोचने के लिए मजबूर करता है तो कभी आपको डिमोटिवेट करते हैं। कभी आपको गलत तरीका सीखाते है तो कभी आपको बुराइओं में धकेल देते हैं। कभी आपको किसी जगह फॅसा देंगे तो कभी आपको भले इंसान से मिलने को रोक देंगे। कभी आपके बारे लोगों से छुपके से बुराईयां करेंगे तो कभी आपको उनके बारे में आपको बुरा बोलेंगे। तो ऐसे व्यक्ति से हमेशा दूर रहे। आपका फॅमिली ही आपके लिए दोस्त है इसके आलावा और कोई नहीं। साथ रहना है तो फॅमिली के साथ रहिये और दुष्ट आपका कोई अहित नहीं कर सकता। कभी अगर सांप से सामना हो जाये तो भागिए और कभी अगर दुष्ट से सामना हो जाये तो और जोड़ से भागिए।

संगति कुलीनों की करें

एतदर्थ कुलीनानां नृपाः कुर्वन्ति संग्रहम्।

आदिमध्यावसानेषु न त्यजन्ति च ते नृपम्॥

आचार्य चाणक्य यहां कुलीनता का वैशिष्ट्य बताते हुए कहते हैं कि कुलीन लोग आरम्भ से अन्त तक साथ नहीं छोड़ते। वे वास्तव में संगति का धर्म निभाते हैं। इसलिए राजा लोग कुलीनों का संग्रह करते हैं ताकि समय-समय पर सत्परामर्श मिल सके। अभिप्राय यह है कि अच्छे खानदानी व्यक्ति जिसके साथ मित्रता करते हैं, उसे जीवन भर निभाते हैं। वे शुरू से अन्त तक सुख और दुःख दोनों दशाओं में कभी साथ नहीं छोड़ते। इसीलिए राजा लोग ऐसे कुलीनों को अपने पास रखते हैं। इसलिए राजा लोग और राजपुरुष महत्त्वपूर्ण एवं विशिष्ट राजकीय सेवाओं में कुलीन की नियुक्ति उनके उच्च संस्कारों और परम्परागत शिक्षा-दीक्षा के कारण ही करते हैं। वे कभी नीच अथवा ओछे हथकण्डे अपनाकर अपने स्वामी के साथ छल या धोखा नहीं करते।

सज्जनों का सम्मान करें

प्रलये भिन्नमर्यादा भवन्ति किल सागराः।

सागरा भेदमिच्छन्ति प्रलयेऽपि न साधवः॥

यहां आचार्य चाणक्य परिस्थितिवश आचरण में आनेवाले परिवर्तन के स्तर और स्थिति को इंगित करते हुए धीर गंभीर व्यक्ति की श्रेष्ठता प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि सागर की तुलना में धीर-गम्भीर पुरुष को श्रेष्ठतर माना जाना चाहिए क्योंकि जिस सागर को लोग इतना गम्भीर समझते हैं, प्रलय आने पर वह भी अपनी मर्यादा भूल जाता है और किनारों को तोड़कर जल-थल एक कर देता है; परन्तु साधु अथवा श्रेष्ठ व्यक्ति संकटों का पहाड़ टूटने पर भी श्रेष्ठ मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करता। अतः साधु पुरुष सागर से भी महान् होता है।

यूँ तो मर्यादापालन के लिए सागर आदर्श माना जाता है, वर्षा में उफनती नदियों को अपने में समेटता हुआ भी सागर अपनी सीमा नहीं तोड़ता, परन्तु प्रलय आने पर उसी सागर का जल किनारों को तोड़ता हुआ सारी धरती को ही जलमय कर देता है। सागर प्रलयकाल में अपनी मर्यादा को सुरक्षित नहीं रख पाता; किन्तु इसके विपरीत साधु पुरुष प्राणों का संकट उपस्थित होने पर भी अपने चरित्र की उदात्तता का परित्याग नहीं करते । वे प्रत्येक अवस्था में अपनी मर्यादा की रक्षा करते हैं। इसलिए सन्त पुरुष समुद्र से भी अधिक गम्भीर माने हैं और उनका सम्मान ही करना चाहिए।

मूर्खों का त्याग करें

मूर्खस्तु परिहर्तव्यः प्रत्यक्षो द्विपदः पशुः।

भिनत्ति वाक्यशूलेन अदृश्ययं कण्टकं यथा॥

आचार्य चाणक्य यहां नरपशु की चर्चा करते हुए कहते हैं कि मूर्ख व्यक्ति को दो पैरोंवाला पशु समझकर त्याग देना चाहिए, क्योंकि वह अपने शब्दों से शूल के समान उसी तरह भेदता रहता है, जैसे अदृश्य कांटा चुभ जाता है। आशय यह है कि मूर्ख व्यक्ति मनुष्य होते हुए भी पशु ही है। जैसे पांव में चुभा हुआ कांटा दिखाई तो नहीं पड़ता पर उसका दर्द सहन नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार मूर्ख व्यक्ति के शब्द दिखाई नहीं देते, किन्तु हृदय में शूल की तरह चुभ जाते हैं। इसलिए मूर्ख को त्याग देना ही उचित रहता है।

विद्या का महत्त्व पहचाने

रूपयौवनसम्पन्ना विशालकुलसंभवाः।

विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः।।

आचार्य चाणक्य विद्या का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि रूप और यौवन से सम्पन्न, उच्च कुल में उत्पन्न होकर भी विद्याहीन मनुष्य सुगन्धहीन फूल के समान होते हैं और शोभा नहीं देते। आशय यह है कि मनुष्य चाहे कितना ही सुन्दर हो, जवान हो और धनी घराने में पैदा हुआ हो किन्तु यदि वह विद्याहीन है, मूर्ख है, तो उसे सम्मान नहीं मिलता। विद्या मनुष्य की सुगन्ध के समान है। जैसे सुगन्ध न होने पर किंशुक पुष्प को कोई पसन्द नहीं करता, इसी तरह अशिक्षित व्यक्ति की भी समाज में कोई इज्जत नहीं होती। अतः विद्या व्यक्ति को वास्तव में गुणी मनुष्य बनाती है।

श्रेष्ठता को बचाएं

त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।

ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥

आचार्य चाणक्य यहां क्रम से श्रेष्ठता को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि व्यक्ति को चाहिए कि कुल के लिए एक व्यक्ति को त्याग दे। ग्राम के लिए कुल को त्याग देना चाहिए । राज्य की रक्षा के लिए ग्राम को तथा आत्मरक्षा के लिए संसार को भी त्याग देना चाहिए। आशय यह है कि यदि किसी एक व्यक्ति को त्याग देने से पूरे कुल-खानदान का भला हो रहा हो, तो उस व्यक्ति को त्याग देने में कोई बुराई नहीं है। यदि कुल को त्यागने से गांव भर का भला होता हो, तो कुल को भी त्याग देना चाहिए। इसी प्रकार यदि गांव को त्यागने पर देश का भला हो, तो गांव को भी त्याग देना चाहिए। किन्तु अपना जीवन सबसे बड़ा है। यदि अपनी रक्षा के लिए सारे संसार का भी त्याग करना पड़े, तो संसार का त्याग कर देना चाहिए। जान है, तो जहान है। यही उत्तम कर्तव्य है।

परिश्रम से ही फल मिलता है

उद्योगे नास्ति दारिद्र्यं जपतो नास्ति पातकम्।

मौनेन कलहो नास्ति जागृतस्य च न भयम्॥

यहां आचार्य चाणक्य आचरण की चर्चा करते हुए कहते हैं कि उद्यम से दरिद्रता तथा जप से पाप दूर होता है। मौन रहने से कलह और जागते रहने से भय नहीं होता। आशय ये है कि परिश्रम-उद्यम करने से गरीबी नष्ट होती है। अतः व्यक्ति को श्रम करना चाहिए ताकि जीवन सम्पन्न हो सके। भगवान का नाम जपने से पाप दूर होते हैं, मन और आत्मा शुद्ध होती है, शुद्ध कर्म की प्रेरणा मिलती है, व्यक्ति दुष्कर्म से दूर होता है। चुप रहने से झगड़ा नहीं बढ़ता और अप्रिय स्थितियाँ टल जाती हैं तथा जागते रहने से किसी चीज का डर नहीं रहता क्योंकि सजगता से व्यक्ति चीजों को खतरे से पूर्व ही संभाल सकता है।

अति का त्याग करें

अति रूपेण वै सीता चातिगर्वेण रावणः।

अतिदानाद् बलिर्बद्धो ह्यति सर्वत्र वर्जयेत्॥

यहां आचार्य चाणक्य ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’ के सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि अधिक सुन्दरता के कारण ही सीता का हरण हुआ था, अति घमंडी हो जाने पर रावण मारा गया तथा अत्यन्त दानी होने से राजा बलि को छला गया। इसलिए अति सभी जगह वर्जित है। आशय यह है कि माता सीता जी अत्यन्त सुन्दरी थीं, इसलिए रावण उन्हें उठा ले गया। रावण को अत्यधिक घमण्ड हो गया था, अतः उसका भगवान राम के हाथों नाश हो गया और राजा बलि अति दानी थे। इसी कारण भगवान् के हाथों ठगे गए। भलाई में भी और बुराई में भी, अति दोनों में ही बुरी है।

इनसे सदा बचें

आचार्य चाणक्य उन चीजों के बारे में बताते हुए कहते हैं की इन चीजों से व्यक्ति को सदैव हानि ही होती है। उनका कहना है कि दुष्टों के गांव में रहना, कुलहीन की सेवा, कुभोजन, कर्कशा पत्नी, मूर्ख पुत्र तथा विधवा पुत्री, ये सब व्यक्ति को बिना आग के जला डालते हैं। मतलब ये सब बातें व्यक्ति को भारी दुःख देती हैं – यदि दुष्टों (लम्पटों) के बीच में रहना पड़े, नीच खानदान वाले की सेवा करनी पड़े, घर में झगड़ालू-कर्कशा पत्नी हो, पुत्र मूर्ख हैं, पढ़े-लिखे नहीं, बेटी विधवा हो जाए – ये सारे दु:ख बिना आग के ही व्यक्ति को अन्दर-ही-अन्दर से जला डालते हैं।

इनसे सुख मिलता है

आचार्य चाणक्य जी व्यक्ति को दु:खों में शांतिदायी वस्तुओं की चर्चा करते हुए कहते हैं कि सांसारिक ताप से जलते हुए लोगों को तीन ही चीजें आराम दे सकती हैं सन्तान, पत्नी तथा सज्जनों की संगति। मतलब अपने बच्चे, पतिव्रता पत्नी तथा अच्छे लोगों का साथ, ये तीन चीजें बड़े काम की हैं। व्यक्ति जब काम-काज से थककर निढाल हो जाता है, तब ये ही तीन चीजें उसे शान्ति देती हैं। क्योंकि प्राय: देखा जाता है कि आदमी बाहर के संघर्षों से जूझता हुआ, दिन भर के परिश्रम से थका-मांदा जब शाम को घर लौटता है तो अपनी संतान को देखते ही सारी थकावट, पीड़ा और मानसिक व्यथा को भूलकर स्वस्थ, शान्त और सन्तुलित हो जाता है।

इसी प्रकार पति के घर आने पर जब मुस्कुराती हुई पत्नी उसका स्वागत करती है, अपनी सुमधुर वाणी से उसका हाल पूछती है, जलपान से उसको तृप्त एवं सन्तुष्ट करती है तो आदमी अपनी सारी परेशानी भूल जाता है। और इसी तरह जब कोई महापुरुष किसी असह्य दुःख से सन्तप्त व्यक्ति को ज्ञानोपदेश देता है तो उसके प्रभाव से वह भी शान्त और संयत हो जाता है। इस प्रकार आज्ञाकारी सन्तान, पतिव्रता स्त्री और साधु संग मनुष्य को सुख देनेवाले साधन हैं। व्यक्ति के जीवन में इनका बड़ा महत्त्व है।

निर्धनता अभिशाप है

निर्धनता को अभिशाप मानते हुए आचार्य चाणक्य जी कहते हैं कि पुत्रहीन के लिए घर सूना हो जाता है, जिसके भाई न हों उसके लिए दिशाएं सूनी हो जाती हैं, मूर्ख का हृदय सूना होता है, किन्तु निर्धन का सब कुछ सूना हो जाता है। मतलब जिस व्यक्ति का एक भी पुत्र न हो, उसे अपना घर एकदम सूना लगता है। जिसका कोई भाई न हो उसे सारी दिशाएं सूनी लगती हैं। मूर्ख व्यक्ति को भले-बुरे का कोई ज्ञान नहीं होता; उसके पास हृदय नाम की कोई चीज नहीं होती। किन्तु एक गरीब के लिए तो घर, दिशाएं, हृदय, सारा संसार ही सूना हो जाता है, इसलिए गरीबी एक अभिशाप है। और लोगों को हमेशा गरीबी से ऊपर उठने की कोशिश करना चाहिए।

कब अकेले कब साथ रहना चाहिए

आचार्य चाणक्य जी कहते है एकान्त में मन के एकाग्रचित्त होने के लिए क्या क्या करना होगा – तप अकेले में करना उचित होता है, पढ़ने में दो, गाने में तीन, जाते समय चार, खेत में पांच व्यक्ति तथा युद्ध में अनेक व्यक्ति होने चाहिए। मतलब तपस्या करने में व्यक्ति को अकेला रहना चाहिए। पढ़ते समय दो लोगों का एक साथ पढ़ना उचित है। गाना गाते समय तीन का साथ अच्छा रहता है। कहीं जाते समय यदि पैदल जा रहे हों, तो चार लोग अच्छे रहते हैं। खेत में काम करते समय पांच लोग अच्छी तरह करते हैं। किन्तु युद्ध में जितने अधिक लोग (सेना) हों, उतना ही अच्छा है।

जिनका उपयोग नहीं उनका कोई लाभ नहीं

आचार्य चाणक्य जी वस्तु की उपयोगिता की चर्चा करते हुए कहते हैं कि उस गाय से क्या करना, जो न तो दूध देती है और न गाभिन होती है। इसी तरह उस पुत्र के जन्म लेने से क्या लाभ, जो न विद्वान् हो और न ईश्वर का भक्त हो। मतलब जो गाय न तो दूध देती है और न गाभिन ही होती है, ऐसी गाय का होना या न होना बराबर ही है। ऐसी गाय को पालना बेकार ही होता है। इसी तरह जो पुत्र न तो विद्वान् हो और न भक्त हो, उस पुत्र का होना या न होना बराबर है।

पतिव्रता ही पत्नी है

आचार्य चाणक्य जी पत्नी के स्वरूप की चर्चा करते हुए कहते हैं कि वही पत्नी है, जो पवित्र और कुशल हो। वही पत्नी है, जो पतिव्रता हो। वही पत्नी है, जिसे अपने पति से प्रीति हो। वही पत्नी है, जो पति से सत्य बोले। मतलब जिसका आचरण पवित्र हो, कुशल गृहिणी हो, जो पतिव्रता हो, जो अपने पति से सच्चा प्रेम करे और उससे कभी झूठ न बोले, वही स्त्री पत्नी कहलाने योग्य है। जिस स्त्री में ये गुण नहीं होते, उसे पत्नी नहीं कहा जा सकता।

मतलब आदर्श पत्नी वही है जो मन, वचन तथा कर्म से पवित्र हो, उसके गुणों का गहन विवेचन करते हुए बताया गया है कि शरीर और अन्त:करण से शुद्ध, आचार-विचार स्वच्छ, गृहकार्यों यथा भोजन, पीसना, कातना, धोना, सीना-पिरोना और साज-सज्जा आदि में निपुण, मन, वचन और शरीर से पति में अनुरक्त और पति को प्रसन्न करना ही अपना कर्तव्य-कर्म माननेवाली, निरन्तर सत्य बोलनेवाली; कभी हंसी-मजाक में भी ऐसी कोई बात नहीं करनेवाली जिससे थोड़ा भी संदेह पैदा होता हो, वही घर स्वर्ग होगा वरना समझिए कि वह इन गुणों के अभाव में घर नहीं नरक है।

कुछ चीजें भाग्य से मिलती हैं

आचार्य चाणक्य जी भाग्य को लक्ष्य करके मानव जीवन के प्रारम्भ में उसके लेखन को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि आयु, कर्म, वित्त, विद्या, निधन, ये पांचों चीजें प्राणी के भाग्य में तभी लिख दी जाती हैं, जब वह गर्भ में ही होता है। अभिप्राय यह है कि प्राणी जब मां के गर्भ में ही होता है, तभी पांच चीजें उसके भाग्य में लिख दी जाती है – आयु, कर्म, धन-सम्पत्ति, विद्या और मृत्यु। इनमें बाद में कोई भी परिवर्तन नहीं हो सकता। उसकी जितनी उम्र होती है उससे एक पल भी पहले उसे कोई नहीं मार सकता। वह जो भी कर्म करता है, उसे जो भी धन-सम्पदा और विद्या मिलती है, वह सब पहले से ही तय होता है। जब उसकी मृत्यु का समय आ जाता है, तो एक क्षण के लिए भी फिर उसे कोई नहीं बचा सकता।

सन्तों की सेवा से फल मिलता है

आचार्य चाणक्य सन्तों की सेवा को महत्त्व देते हुए कहते हैं कि संसार के अधिकतर पुत्र, मित्र और भाई साधु-महात्माओं, विद्वानों आदि की संगति से दूर रहते हैं। जो लोग सत्संगति करते हैं, वे अपने कुल को पवित्र कर देते हैं। आशय यह है कि लगभग सभी लोग सत्संग से दूर रहते हैं। किन्तु जो व्यक्ति सच्चे ज्ञानी महात्माओं का साथ पाते हैं, वे अपने कुल को पवित्र करके उसका तारण करते हैं। वे इस सदाचरण से अपने पूरे परिवार को उज्ज्वल बना देते हैं। उनके इस कार्य पर परिवार को गर्व करना चाहिए। उसे अपना आदर्श मानना चाहिए और उससे प्रेरणा लेनी चाहिए।

मनुष्य जानता है कि शरीर नश्वर है, परन्तु वह यह यथार्थ जानते हुए भी सांसारिक कर्मों में लिप्त रहता है जबकि उसे निर्लिप्त रहकर कार्य करना चाहिए। आचार्य चाणक्य सत्संगति की चर्चा करते हुए और कहते हैं कि जैसे मछली, मादा कछुवा और चिड़िया अपने बच्चों का पालन क्रमश: देखकर, ध्यान देकर तथा स्पर्श से करती हैं, उसी प्रकार सत्संगति भी हर स्थिति में मनुष्यों का पालन करती है। आशय यह है कि मछली अपने बच्चों का पालन उन्हें बार-बार देखकर करती है, मादा कछुआ ध्यान लगाकर बच्चों को देखती है और मादा पक्षी बच्चों को पंखों से ढककर उनका पालन करते हैं। सज्जनों का साथ भी मनुष्य की इसी तरह देख-रेख होता है।

जहाँ तक हो पुण्य कर्म करें

आचार्य चाणक्य जी आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त करते हुए कहते हैं कि जब तक शरीर स्वस्थ है, तभी तक मृत्यु भी दूर रहती है। अतः तभी आत्मा का कल्याण कर लेना चाहिए। प्राणों का अन्त हो जाने पर क्या करेगा? केवल पश्चात्ताप ही शेष रहेगा। यहाँ आशय यह है कि जब तक शरीर स्वस्थ रहता है, तब तक मृत्यु का भी भय नहीं रहता। अत: इसी समय में आत्मा और परमात्मा को पहचानकर आत्मकल्याण कर लेना चाहिए। मृत्यु हो जाने पर कुछ भी नहीं किया जा सकता। आचार्य चाणक्य का कहना है कि समय गुजरता रहता है, और न जाने कब व्यक्ति को रोग घेर ले और कब मृत्यु का संदेश ले यमराज के दूत द्वार पर आ खड़े हों, इसलिए मानव को चाहिए कि वह जीवन में अधिक-से-अधिक पुण्य कर्म करे क्योंकि समय का क्या भरोसा? जो कुछ करना है समय पर ही कर लेना चाहिए।

विद्या कामधेनु के समान होती है

आचार्य चाणक्य जी विद्या के महत्त्व के बारे में कहते हैं कि विद्या कामधेनु के समान गुणोंवाली है, बुरे समय में भी फल देनेवाली है, प्रवास काल में मां के समान है तथा गुप्त धन है। आशय यह है कि विद्या कामधेनु के समान सभी इच्छाओं को पूरा करनेवाली है। बुरे-से-बुरे समय में भी यह साथ नहीं छोड़ती। घर से कहीं बाहर चले जाने पर भी यह मां के समान रक्षा करती है। यह एक गुप्त धन है, इस धन को कोई नहीं देख सकता। आचार्य चाणक्य मानते हैं कि विद्या एक गुप्त धन है अर्थात् एक ऐसा धन है जो दिखाई नहीं देता पर वह है और अनुभव की वस्तु है। जिसका हरण तथा विभाजन नहीं हो सकता, अतः वह सब प्रकार से सुरक्षित और विश्वसनीय भी है। वही समय पड़ने पर आदमी के काम आता है। इस प्रकार विद्या संकट में कामधेनु गाय के समान और परदेश में मां के समान है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह प्रच्छन्न और सुरक्षित धन है। सोने के आभूषणों के समान इसे न कोई छीन सकता है, न चुरा सकता है।

गुणवान पुत्र एक ही पर्याप्त है

आचार्य चाणक्य जी उपादेयता, गुण तथा योग्यता के आधार पर पुत्र के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि केवल एक गुणवान् और विद्वान् बेटा सैकड़ों गुणहीन, निकम्मे बेटों से अच्छा होता है। जिस प्रकार एक चांद ही रात्रि के अन्धकार को दूर करता है, असंख्य तारे मिलकर भी रात्रि के गहन अन्धकार को दूर नहीं कर सकते, उसी प्रकार एक गुणी पुत्र ही अपने कुल का नाम रोशन करता है, उसे ऊंचा उठाता है; ख्याति दिलाता है। सैकड़ों निकम्मे पुत्र मिलकर भी कुल की प्रतिष्ठा को ऊंचा नहीं उठा सकते। निकम्मे गुणहीन पुत्र उलटे अपने बुरे कामों से कुल को कलंकित करते हैं। उनका होना भी किसी काम का नहीं। वे तो अनर्थकारी ही होते हैं।

वाणी में मधुरता लाएं

को हि भारः समर्थानां किं दूर व्यवसायिनाम्।

को विदेश सुविद्यानां को परः प्रियवादिनाम्।।

आचार्य चाणक्य यहां मधुरभाषिता को व्यक्तित्व का महत्त्वपूर्ण गुण बताते हुए कहते हैं कि सामर्थ्यवान व्यक्ति को कोई वस्तु भारी नहीं होती। व्यापारियों के लिए कोई जगह दूर नहीं होती। विद्वान् के लिए कहीं विदेश नहीं होता। मधुर बोलनेवाले का कोई पराया नहीं होता। अभिप्राय यह है कि समर्थ व्यक्ति के लिए कौन-सी वस्तु भी भारी होती है। वह अपनी सामर्थ्य के बल पर कुछ भी कर सकता है। व्यापारियों के लिए दूरी क्या? वह वस्तु-व्यापार के लिए कहीं भी जा सकता है। विद्वान् के लिए कोई-सा देश विदेश नहीं क्योंकि अपने ज्ञान से वह सभी जगह अपने लिए वातावरण बना लेगा। मधुर बोलनेवाले व्यक्ति के लिए कोई पराया नहीं क्योंकि मधुरभाषिता से वह सबको अपना बना लेता है।

गुणवान एक भी पर्याप्त है

एकेनापि सुवर्ण पुष्पितेन सुगन्धिना।

वसितं तद्वनं सर्वं सुपुत्रेण कुलं यथा॥

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि गुणवान एक भी अपने गुणों का विस्तार करके नाम कमा लेता है। उनका कहना है कि वन में सुन्दर खिले हुए फूलोंवाला एक ही वृक्ष अपनी सुगन्ध से सारे वन को सुगन्धित कर देता है। इसी प्रकार एक ही सुपुत्र सारे कुल का नाम ऊंचा कर देता है। आशय यह है कि यदि वन में कहीं पर एक ही वृक्ष में भी सुन्दर फूल खिले हों, तो उसकी सुगन्ध से सारा वन महक उठता है। इसी तरह एक ही सपूत सारे वंश का नाम अपने गुणों से उज्ज्वल कर देता है। क्योंकि कोई भी वंश गुणी पुत्रों से ही ऊंचा उठता है इसलिए अनेक गुणहीन पुत्रों की अपेक्षा एक गुणवान पुत्र ही पर्याप्त है इसीलिए आज के परिवार नियोजन के सन्दर्भ में अनेक बच्चों की जगह एक ही अच्छे बच्चे का होना अधिक सुखकर माना जाता है।

एकेन शुष्कवृक्षण दह्यमानेन वह्निना।

दह्यते तद्वनं सर्वं कुपुत्रेण कुलं यथा॥

आचार्य चाणक्य गुणवत्ता को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि एक ही सूखे वृक्ष में आग लगने पर सारा वन जल जाता है। इसी प्रकार एक ही कुपुत्र सारे कुल को बदनाम कर देता है। आशय यह है कि वन में यदि एक भी वृक्ष सूखा हुआ हो, तो उसमें शीघ्र आग लग जाती है, और उस वृक्ष की आग से वह सारा वन जलकर राख हो जाता है। ठीक इसी तरह यदि कुल में एक भी कपूत पैदा हो जाता है, तो वह सारे कुल को बदनाम कर देता है। अतः सद्गृहस्थ को चाहिए कि सन्तान को मर्यादा में रखे और उनमें सद्गुण पैदा करने का प्रयास करे।

एकेनापि सुपुत्रेण विद्यायुक्ते च साधुना।

आह्वादितं कुलं सर्वं यथा चन्द्रेण शर्वरी॥

यहां भी आचार्य चाणक्य गुणवान के अकेले होने पर भी बहुसंख्य की अपेक्षा कमतरों की सार्थकता प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार अकेला चन्द्रमा रात की शोभा बढ़ा देता है, ठीक उसी प्रकार एक ही विद्वान् सज्जन पुत्र कुल को आह्लादित करता है। अभिप्राय यह है कि एक अकेला चन्द्रमा रात के सारे अंधेरे को दूर करके सारी दुनिया को अपने प्रकाश से जगमगा देता है। इसी तरह पुत्र एक ही हो, किन्तु गुणवान हो तो सारे कुल के नाम को रोशन कर देता है। इसलिए अच्छे स्वभाव का एक पुत्र सारे वंश का नाम रोशन कर देता है और परिवार के सदस्यों को आनन्दित कर देता है, क्योंकि उसके कारण वे अपने वंश पर गर्व और गौरव अनुभव करने लगते हैं। अंधियारी रात किसी को नहीं सुहाती, इसी प्रकार कुपुत्र भी कुल को नहीं सुहाता। वह कुल का नाम डुबानेवाला होता है।

किं जातैर्बहुभिः पुत्रैः शोकसन्तापकारकैः।

वरमेकः कुलावलम्बो यत्र विश्राम्यते कुलम्॥

यहां भी आचार्य चाणक्य गुणवान एक ही पुत्र की पर्याप्तता प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि शोक और सन्ताप उत्पन्न करनेवाले अनेक पुत्रों के पैदा होने से क्या लाभ! कुल को सहारा देनेवाला एक ही पुत्र श्रेष्ठ है, जिसके सहारे सारा कुल विश्राम करता है। आशय है कि अनेक अवगुणी पुत्रों के होने से कोई लाभ नहीं । उनके पैदा होने से सबको दुःख ही होता है, किन्तु कुल को सहारा देनेवाला, उसका नाम ऊंचा करनेवाला एक ही पुत्र अच्छा है। ऐसे पुत्र से कुल अपने को धन्य समझता है।

माता-पिता भी अपना दायित्व समझें

लालयेत् पंचवर्षाणि दशवर्षाणि ताडयेत्।

प्राप्ते षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत्॥

यहां आचार्य चाणक्य पुत्र-पालन में माता-पिता के दायित्व को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि पुत्र का पांच वर्ष तक लालन करे। दस वर्ष तक ताड़न करे। सोलहवां वर्ष लग जाने पर उसके साथ मित्र के समान व्यवहार करना चाहिए। आशय यह है कि पांच वर्ष की अवस्था तक ही पुत्र के साथ लाड़-प्यार करना चाहिए, इसके बाद दस वर्षों तक, अर्थात् पन्द्रह वर्ष की अवस्था तक उसे कठोर अनुशासन में रखना चाहिए। किन्तु जब पुत्र पन्द्रह वर्ष की अवस्था पूरी करके सोलहवें में प्रवेश कर जाए, तो वह वयस्क हो जाता है। फिर उसके साथ एक मित्र की तरह सम्मान का व्यवहार करना चाहिए।

समय की सूझ

उपसर्गेऽन्यचक्रे च दुर्भिक्षे च भयावहे।

असाधुजनसम्पर्के पलायति स जीवति॥

आचार्य चाणक्य यहां समय की सूझ की चर्चा करते हुए कहते हैं – उपद्रव या लड़ाई हो जाने पर, भयंकर अकाल पड़ जाने पर और दुष्टों का साथ मिलने पर भागजाने वाला व्यक्ति ही जीता है। आशय यह है कि कहीं पर भी अन्य लोगों के बीच में लड़ाई-झगड़ा, दंगा-फसाद हो जाने पर, भयंकर अकाल पड़ जाने पर और दुष्ट लोगों के सम्पर्क में आ जाने पर उस स्थान को छोड़कर भाग खड़ा होनेवाला व्यक्ति अपने को बचा लेता है। ऐसी जगहों से भाग जाना ही सबसे बड़ी समझदारी है।

जीवन की निष्फलता

धर्मार्थकाममोक्षेषु यस्यैकोऽपि न विद्यते।

जन्म जन्मानि मर्त्येषु मरणं तस्य केवलम्॥

यहां आचार्य जीवन की निरर्थकता की चर्चा करते हुए कहते हैं कि जिस मनुष्य को धर्म, धन, काम-भोग, मोक्ष में से एक भी वस्तु नहीं मिल पाती, उसका जन्म केवल मरने के लिए ही होता है। आशय यह है कि धर्म, धन, काम (भोग) तथा मोक्ष पाना मनुष्य-जीवन के चार कार्य हैं। जो व्यक्ति न तो अच्छे काम करके धर्म का संचय करता है, न धन ही कमाता है, न काम भोग आदि इच्छाओं को ही पूरा कर पाता है और न मोक्ष ही प्राप्त करता है, उसका जीना या मरना एक समान है। वह जैसा इस दुनिया में आता है, वैसा ही यहां से चला जाता है। उसका जीवन निरर्थक है।

लक्ष्मी का वास कहाँ हैं?

मूर्खाः यत्र न पूज्यन्ते धान्यं यत्र सुसंचितम्।

दाम्पत्योः कलहो नास्ति तत्र श्री स्वयमागता॥

आचार्य चाणक्य यहां विद्वानों एवं स्त्री के सम्मान में खुशहाली एवं शांति की स्थिति का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि जहां मूर्खों का सम्मान नहीं होता, अन्न का भण्डार भरा रहता है और पति-पत्नी में कलह नहीं हो, वहां लक्ष्मी स्वयं आती है। आशय यह है कि जिन घरों में कोई भी व्यक्ति मूर्ख नहीं होता, अनाज-खाद्य पदार्थ आदि के भण्डार भरे रहते हैं तथा पति-पत्नी में आपस में कभी लड़ाई-झगड़ा, मनमुटाव नहीं रहता। ऐसे घरों में सुख-शान्ति, धन-सम्पत्ति आदि सदा बनी रहती है। इसीलिए यह कहा जा सकता है कि यदि देश की समृद्धि और देशवासियों की सन्तुष्टि अभीष्ट है तो मूर्खों के स्थान पर गुणवान् व्यक्तियों को आदर देना चाहिए। बुरे दिनों के लिए अन्न का भण्डारण करना चाहिए तथा घर-गृहस्थ में वाद-विवाद का वातावरण नहीं बनने देना चाहिए। जब विद्वानों का आदर और मूर्खों का तिरस्कार होगा, अन्न की प्रचुरता होगी तथा पति-पत्नी में सद्भाव होगा तो गृहस्थों के घरों अथवा देश में सम्पत्ति उत्तरोत्तर बढ़ती ही जाएगी – इसमें सन्देह नहीं हो सकता और यही आचरण व्यक्ति और देश को समुन्नत करने में सहायक होगा।

मूर्ख पुत्र किस काम का

मूर्खश्चिरायुर्जातोऽपि तस्माज्जातमृतो वरः।

मृतः स चाल्पदुःखाय यावज्जीवं जडो दहेत् ॥

आचार्य चाणक्य जी यहां इस श्लोक में मूर्ख पुत्र की निरर्थकता पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि मुर्ख पुत्र का चिरायु होने से मर जाना अच्छा है, क्योंकि ऐसे पुत्र के मरने पर एक ही बार दुःख होता है, जिन्दा रहने पर वह जीवन भर जलाता रहता है। यहां आशय यह है कि मूर्ख पुत्र को लम्बी उम्र मिलने से उसका शीघ्र मर जाना अच्छा है। क्योंकि मूर्ख के मर जाने पर एक ही बार कुछ समय के लिए दुःख होता है, किन्तु जीवित रहने पर वह जीवन भर मां-बाप को दुःखी करता रहता है। और संसार में ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि मूर्ख पुत्रों ने विरासत में पाए विशाल साम्राज्य को धूल में मिला दिया। पिता की अतुल सम्पत्ति को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। मानव तो स्वभावत: अपनी सन्तान से प्रेम करता है परन्तु उसके साथ ही वह यदि वास्तविकता से भी आँखें मूंद ले तो फिर क्या हो सकता है? आचार्य चाणक्य यहां इसी प्रवृत्ति के प्रति सचेत कर रहे हैं।

यह एक बार ही होती हैं

सकृज्जल्पन्ति राजानः सकृज्जल्पन्ति पण्डिताः।

सकृत्कन्याः प्रदीयन्ते त्रीण्येतानि सकृत्सकृत्॥

आचार्य चाणक्य यहां संयत और एक ही बार कार्य करने के सन्दर्भ में कहते हैं कि राजा लोग एक ही बार बोलते हैं; पण्डित भी एक ही बार बोलते हैं तथा कन्यादान भी एक ही बार होता है। ये तीनों कार्य एक-एक बार ही होते हैं।

  • आशय यह है कि राजा का आदेश एक ही बार होता है।
  • विद्वान् लोग भी एक बात को एक ही बार कहते हैं।
  • कन्यादान भी जीवन में एक ही बार किया जाता है।

इस प्रकार चाहे राजा हो या विद्वान् या फिर कन्याओं के विवाह-सम्बन्ध आदि के लिए माता-पिता का वचन अटल होता है। तीनों- राजा, पण्डित तथा माता-पिता द्वारा बोले वचन लौटाए नहीं जाते, अपितु निभाए जाते हैं। उनके निभाने या पूरा करने में ही उनकी महानता होती है। अर्थात् जिसे जो अच्छा काम करना होता है, वह करता है, उसे बार-बार कहने की आवश्यकता नहीं होती। यही बड़े व्यक्तियों का आदर्श रूप है।

काम से पहले विचार कर लें

कः कालः कानि मित्राणि को देशः को व्ययागमोः।

कस्याहं का च मे शक्तिरिति चिन्त्यं मुहुर्मुहुः॥

आचार्य चाणक्य जी जीवन में व्यवहार्य वस्तु की पूरी पहचान कर ही उन्हें बरतने की बात प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि कैसा समय है? कौन मित्र है? कैसा स्थान है? आय-व्यय क्या है? मैं किसकी और मेरी क्या शक्ति है ? इसे बार-बार सोचना चाहिए। अर्थात् व्यक्ति को किसी भी कार्य को शुरू करते समय इन बातों पर अच्छी तरह से विचार कर लेना चाहिए कि क्या यह समय इस काम को करने के लिए उचित रहेगा? मेरे सच्चे साथी कौन-कौन हैं, जो मेरी मदद करेंगे? क्या इस स्थान पर इस काम को करने से लाभ होगा? इस काम में कितना खर्च होगा और इससे कितनी आय होगी ? मैंने किसकी मदद की है? तथा मेरे पास कितनी शक्ति है? इन प्रश्नों पर विचार करते हुए मनुष्य को अपना जीवन बिताना चाहिए तथा आत्मकल्याण के लिए सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए। जो व्यक्ति इन बातों पर विचार नहीं करता, वह पत्थर के समान निर्जीव होता है और सदा लोगों के पांवों में पड़ा ठोकरें खाता रहता है। मनुष्य को समझदारी से काम लेकर जीवन बिताना चाहिए।

इनका त्याग देना ही अच्छा

त्यजेद्धर्म दयाहीनं विद्याहीनं गुरुं त्यजेत्।

त्यजेत्क्रोधमुखी भार्या निःस्नेहान्बान्धवांस्यजेत्॥

आचार्य चाणक्य जी यहां त्यागने योग्य धर्म का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि धर्म में यदि दया न हो तो उसे त्याग देना चाहिए। विद्याहीन गुरु को, क्रोधी पत्नी को तथा स्नेहहीन बान्धवों को भी त्याग देना चाहिए। अर्थात् जिस धर्म में दया न हो, उस धर्म को छोड़ देना चाहिए। जो गुरु विद्वान् न हो, उसे त्याग देना चाहिए। गुस्सैल पत्नी का भी त्याग कर देना चाहिए। जो भाई-बन्धु, सगे-संबंधी प्रेम न रखते हों, उनसे सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए। अर्थात् दयाहीन धर्म को, विद्याहीन गुरु को, गुस्सैल पत्नी को और स्नेहहीन भाई-बन्धुओं को त्याग देना ही अच्छा है।

ज्ञान का अभ्यास भी करें

अनभ्यासे विषं शास्त्रमजीर्णे भोजनं विषम्।

दरिद्रस्य विषं गोष्ठी वृद्धस्य तरुणी विषम्॥

आचार्य चाणक्य जी यहां ज्ञान को चिरस्थायी व उपयोगी बनाए रखने के लिए अभ्यास पर जोर देते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार बढ़िया-से-बढ़िया भोजन बदहजमी में लाभ करने के स्थान पर हानि पहुंचाता है और विष का काम करता है, उसी प्रकार निरन्तर अभ्यास न रखने से शास्त्रज्ञान भी मनुष्य के लिए घातक विष के समान हो जाता है। यों कहने को तो वह पण्डित होता है, परन्तु अभ्यास न होने के कारण वह शास्त्र का भली प्रकार विश्लेषण विवेचन नहीं कर पाता तथा उपहास और अपमान का पात्र बनता है। ऐसी स्थिति में सम्मानित व्यक्ति को अपना अपमान मृत्यु से भी अधिक दुःख देता है। जो व्यक्ति निर्धन व दरिद्र है उसके लिए किसी भी प्रकार की सभाएं, उत्सव विष के समान हैं। इन गोष्ठियों, उल्लास के आयोजनों में तो केवल धनवान् व्यक्ति ही जा सकते हैं। यदि कोई दरिद्र भूल से अथवा मूर्खतावश इस प्रकार के आयोजनों में जाने की धृष्टता करता भी है तो उसे वहां से अपमानित होकर निकलता पड़ता है, अतः निर्धन व्यक्ति के लिए सभाओं, गोष्ठियों, खेलों व मेलों ठेलों में जाना प्रतिष्ठा के भाव से अपमानित करनेवाला ही सिद्ध होता है। उसे वहां नहीं जाना चाहिए।

बुढ़ापे के लक्षण

अध्वाजरं मनुष्याणां वाजिनां बन्धनं जरा।

अमैथुनं जरा स्त्रीणां वस्त्राणामातपं जरा॥

यहां इन पंक्तियों में आचार्य चाणक्य जी वृद्धावस्था पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि रास्ता मनुष्य का, बांधा जाना घोड़े का, मैथुन न करना स्त्री का तथा धूप में सूखना वस्त्र का बुढ़ापा है। अर्थात् राह में चलते रहने से थककर मनुष्य अपने को बूढ़ा अनुभव करने लगता है। घोड़ा बंधा रहने पर बूढ़ा हो जाता है। सम्भोग के अभाव में स्त्री अपने को बुढ़िया अनुभव करने लगती है। धूप में सुखाए जाने पर कपड़े शीघ्र फट जाते हैं तथा उनका रंग फीका पड़ जाता है।

माता-पिता के भिन्न रूप

पिता –

जनिता चोपनेता च यस्तु विद्यां प्रयच्छति।

अन्नदाता भयत्राता पञ्चैता पितरः स्मृताः॥

यहाँ इस श्लोक में आचार्य चाणक्य जी संस्कार की दृष्टि से पांच प्रकार के पिता को गिनाते हुए कहते हैं – जन्म देनेवाला, उपनयन संस्कार करनेवाला, विद्या देनेवाला, अन्नदाता तथा भय से रक्षा करनेवाला, ये पांच प्रकार के पिता होते हैं। अर्थात् स्वयं अपना पिता जो जन्म देता है, उपनयन (यज्ञोपवीत) संस्कार करनेवाला गुरु, अन्न-भोजन देनेवाला तथा किसी कठिन समय में प्राणों की रक्षा करनेवाला इन पांच व्यक्तियों को पिता माना गया है। किन्तु व्यवहार में पिता का अर्थ जन्म देनेवाला ही लिया जाता है।

माता –

राजपत्नी गुरोः पत्नी मित्रपत्नी तथैव च।

पत्नीमाता स्वमाता च पञ्चैताः मातरः स्मृताः॥

यहाँ इस श्लोक में आचार्य चाणक्य माँ के बारे में चर्चा करते हुए कहते हैं कि राजा की पत्नी, गुरु की पत्नी, मित्र की पत्नी, पत्नी की माँ तथा अपनी माँ-ये पांच प्रकार का माँएं होती हैं। अर्थात् अपने देश के राजा की पत्नी, गुरु की पत्नी, मित्र की पत्नी, अपनी पत्नी की माँ, अर्थात् सास और जन्म देनेवाली अपनी माँ इन पांचों को माँ माना जाता है। वस्तुत: देखा जाए तो माता ममता और करुणा की प्रतिमूर्ति होती है। जहाँ से ममता और करुणा का प्रवाह पुत्र के लिए होता है, उसे माता मान लिया गया है। अतः इन पाँच स्थानों से भावनामयी, करुणामयी हृदय से भावमय प्रवाह प्रवाहित होता है। इसलिए इन पाँच को माता माना जाता है। इसीलिए इनका व्यक्ति के जीवन में माँ के समान ही महत्त्व है।

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