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Chanakya Niti in Hindi – ये 4 चाणक्य नीति जो व्यक्ति के जीवन के लिए बहुत इम्पोर्टेन्ट है
1. स्वाध्याय
यहां आचार्य स्वाध्याय की महत्ता प्रतिपादित करते हुए कह रहे हैं कि व्यक्ति को चाहिए कि वह किसी एक श्लोक का या आधे या उसके भी आधे अथवा एक अक्षर का ही सही मनन करे। मनन, अध्ययन, दान आदि कार्य करते हुए दिन को सार्थक करना चाहिए।
अभिप्राय यह है कि कम-से-कम जितना भी हो सके, मनुष्य को अपने कल्याण के लिए मनन अवश्य करना चाहिए। मनन करना, अध्ययन करना तथा लोगों की सहायता करना-ये मनुष्य-जीवन के अनिवार्य कर्तव्य हैं। ऐसा करने पर ही जीवन सार्थक होता है। क्योंकि मानव जीवन अमूल्य है। उसका एक-एक दिन, एक-एक क्षण अमूल्य है, उसे सफल बनाने के लिए स्वाध्याय, चिंतन-मनन एवं दान आदि सत्कर्म करते रहना चाहिए। यह जीवन का नियम ही बना लिया जाए तो सर्वोत्तम है।
2. आसक्ति विष है
कान्तावियोग स्वजनापमानो
ऋणस्य शेषः कुनृपस्य सेवा।
दरिद्रभावो विषया सभा च
विनाग्निमेते प्रदहन्ति कायम् ॥
यहां आचार्य जीवन में त्याज्य स्थितियों पर विचार करते हुए व्यक्ति को उपदेश करते हुए कहते हैं कि प्रियतमा का पत्नी से वियोग, स्वजनों से अपमान होना, ऋण का न चुका पाना, दुष्ट राजा की सेवा, दरिद्रता और धूर्त लोगों की सभा, ये बातें बिना अग्नि के ही शरीर को जला देते हैं।
अभिप्राय यह है कि एक आग सबको दिखाई देती है, यह बाहरी अग्नि है किन्तु एक आग अन्दर-ही-अन्दर से व्यक्ति को जलाती रहती है, उसे कोई देख भी नहीं सकता। पत्नी से अत्यधिक प्रेम हो, किन्तु उससे बिछुड़ना पड़ जाए। परिवारवालों की कहीं पर बेइज्जती हो जाए, कर्ज को चुकाना मुश्किल हो जाए, दुष्ट राजा की नौकरी करनी पड़े, गरीबी छूटे नहीं, दुष्ट लोग मिलकर कोई सभा कर रहे हों ! ऐसी मजबूरी में बेचारा आदमी अन्दर-ही-अन्दर जलता रहता है। उसकी तड़पन को कोई देख भी नहीं सकता। यह ऐसी ही न दीखनेवाली आग है।
3. विनाश का कारण
नदीतीरे च ये वृक्षाः परगेहेषु कामिनी।
मन्त्रिहीनाश्च राजानः शीघ्रं नश्यन्त्यसंशयम्॥
आचार्य चाणक्य नीति के वचनों के क्रम में यहां उपदेश कर रहे हैं कि तेज बहाववाली नदी के किनारे लगनेवाले वृक्ष, दूसरे के घर में रहनेवाली स्त्री, मन्त्रियों से रहित राजा लोग- ये सभी शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।
भाव यह है कि नदी की धारा अनिश्चित रहने के कारण उसके किनारे उगनेवाले वृक्ष शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। क्योंकि उनकी जमीन पेड़ों के बोझ को सह नहीं पाती और जड़ें उखड़ने लगती हैं। उसी प्रकार दूसरे के घर गयी हुई स्त्री भी चरित्र की दृष्टि से सुरक्षित नहीं रह पाती उसका सतीत्व शंका के दायरे में आ जाता है।
इस सन्दर्भ में किसी नीतिकार ने ही कहा है –
‘लेखनी पुस्तिका दाराः परहस्ते गता गताः ।
आगता दैवयोगेन नष्टा भ्रष्टा च मर्दिता ॥
अर्थात् लेखनी (कलम), पुस्तक और स्त्री दूसरे के हाथ में चली गयीं तो गंवाई गयी ही समझें। यदि दैवयोग से वापस लौट भी आईं तो उनकी दशा नष्ट, भ्रष्ट और मर्दित रूप में ही होती है।
इसी प्रकार राजा का बल मन्त्री होता है। मन्त्री राजा को सन्मार्ग में प्रवृत्त एवं कुमार्ग से हटाता है। उसका न होना राजा के लिए घातक है। इसलिए राजा के पास मन्त्री भी होना चाहिए।
4. व्यक्ति का बल
बलं विद्या च विप्राणां राज्ञः सैन्यं बलं तथा।
बलं वित्तं च वैश्यानां शूद्राणां च कनिष्ठता ।।
आचार्य चाणक्य का यहां कथन है कि विद्या ही ब्राह्मणों का बल है। राजा का बल सेना है। वैश्यों का बल धन है तथा सेवा करना शूद्रों का बल है।
अभिप्राय यह है कि ज्ञान-विद्या ही ब्राह्मण का बल माना गया है। अध्ययन-स्वाध्याय ही उसका मुख्य कर्म-क्षेत्र है उसी में उसे निपुण होना चहिए तभी वह आदरणीय होगा। राजाओं का बल उनकी सेना होती है। क्योंकि सैन्य-शक्ति के बल पर ही वह अपने राज्य की सीमाएं सुरक्षित रख सकता है। इसी प्रकार धन वैश्यों का बल तथा सेवा करना शूद्रों का बल है। यही उनके कार्य-क्षेत्र का वैशिष्ट्य है।
आपको आज का ये चाणक्य नीति कैसा लगा और आप इस चार नीति से कुछ सीख पाए या नहीं मुझे नीचे कमेंट करके जरूर बताये। चाणक्य नीति को अपने दोस्तों के साथ शेयर जरूर करें।